Tuesday, October 21, 2008

175 वां दिन - संशोधित

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08c.jpg]

'तीन पत्ती' की शूटिंग, एक जीर्ण कारखाने पर। एक छोटा सा अड्डा जहाँ ताश खेला जाता है। शूटिंग चल रही है। अंदर बहुत गरमी है। भीड़। लेकिन एक बार जब कैमरा चलने लगता है तो सिर्फ़ कैमरा ही तुम्हारे साथ रहता और कुछ भी नहीं।

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08b.jpg]

फोटो में जो पाइप है वो वातानुकूलन यंत्र है। यह सेट पर ठंडी हवा फेंकता है , लेकिन कम प्रभावी है। शूटिंग शुरू होते ही इसे बंद करने को कहता है साउंड डिपार्टमेंट। सेट पर एक विशाल अजगर जैसा लगता है। भगवान का शुक्र इन छोटी छोटी नियामतों के लिए।

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08d.jpg]

एक और फोटो 'तीन पत्ती' से .. खुले में बाहर, गांव के बच्चों को पढ़ाते हुए ...

लीलावती अस्पताल # 1101, मुंबई अक्टूबर10, 2008 / अक्टूबर 16, 2008 6:26 pm पर लिखा हुआ

मैं ठीक हूँ। और ज़िंदा! और कल सुबह मैं यहाँ से छूट जाऊगा और मैं उन सब प्रशंसकों और शुभचिंतकों को धन्यवाद देता हूँ जिनकी प्रार्थना ने एक बार फिर मेरे परिवार का और मेरा साथ दिया और मुझे इस संकट से उबारा।

आपके निरन्तर सहयोग और विश्वास, मेरे लिए आपका चिंता करना और आपकी अपनी प्रतिबद्धता की शक्ति एक ऐसा शक्तिशाली बल ही जिसने मुझे फिर से ज़िंदा किया और मेरी सारी ऊर्जा लौटाई। जो मुझे लड़ने की शक्ति देता है। अनसोची विपत्तियों का सामना करने की शक्ति देता है। मैं दिवालिया हो चुका हूँ शब्दों और अभिव्यक्तियों के हिसाब से, चाहे कितनी भी ईमानदारी बरतूँ, मैं कभी भी सही मायने में अपनी कृतज्ञता ज्ञापन नहीं कर सकूँगा।

मैं अपनी हालत पर शर्मिंदा हूँ। मुझे ये असहज लग रहा है कि मैं दूसरों के लिए असुविधा का कारण बन सकता हूँ। मैं चाह्ता हूँ कि ऐसे हालात में मेरी तरफ़ दिया गया ध्यान हट जाए। पर ऐसा होता नहीं है। मुझे ये खयाल तक नापसन्द है कि मुझे उन से आँख मिलानी होगी जो मुझे सहानुभूति दिखाते हैं। तो मैं अपना सर झुका लेता हूँ ताकि मैं अपनी हालत का असर उन पर न देख सकूँ। मैं जनता के सामने अपना चेहरा छुपा लेता हूँ और कामना करता हूँ कि मुझे जितनी जल्दी हो सके एकांत में ले जाया जाए। जब तक ...

जब तक मैं अपने पैरों पर फिर से खड़ा हो सकूँ. उन लोगों का शुक्रिया अदा कर सकूँ जिन्होंने अपना प्यार दिखाया. भगवान मेरी मदद करे कि मैं ऐसा सदा कर सकूँ.
तो चलो 10 अक्टूबर की ओर चलते हैं। दिन शुरु होता है सामन्य रुप से हर दिन की तरह - जिम जाना, कागज़ी काम निपटाना, और नातियों के साथ खेलना और 'तीन पत्ती' की शूटिंग। भविष्य की शूटिंग की मीटिंग दिन में होती है और जब वो खत्म हो जाती है तो मैं अपने ऑफ़िस आता हूँ एक बिहार के अभियान के लिए, उस भयानक बाढ़ के लिए जिसने हज़ारों को भूखा और बेघर कर दिया है। मेरे देशवासियों की खुशहाली के लिए मेरा योगदान। मैंने अपनी और से कुछ भेज दिया है और और भी कुछ किया जाएगा आने वाले दिनों में। एक कॉंसर्ट जिसके द्वारा धन एकत्र किया जाएगा। उन लोगों में जागरुकता पैदा की जाएगी जिन्हें सामने आ कर मदद करनी चाहिए। मैंने एक संगठन का वित्तपोषण किया है 3 साल के लिए जो कि स्वयंसेवक भेज रहा है बिहार में पीड़ितों की मदद के लिए। लेकिन अभी बहुत कुछ और भी करने की जरूरत है।

उसके बाद, राम गोपाल वर्मा मिलते हैं और हम लंबे समय तक - रात 10 बजे तक - बात करते हैं- एक अनूठे विचार पर। एक टी-वी चैनल वाले सम्पर्क करते हैं मेरी टी-वी पर वापस आने की सम्भावना को ले कर। और मैं अंतत: निवृत हो कर 'जलसा' आ जाता हूँ परिवार के साथ खाने के लिए और 11 अक्टूबर को लाने के लिए।


आधी रात होते ही शुभकामनाएं आनी शुरु हो जाती हैं खाने की मेज पर। 66 साल। उपहार दिए जाते हैं। प्यारे और कोमल और निजी। लेकिन सबसे प्यारे उपहार की बात की जा सकती है। यह जया से मिला। जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, कि 'सोपान' से वे सारे पुराने पत्र आदि खोद-खोद कर संकलित कर रही हैं। उन्होंने एक और खजाना ढूंढ निकाला। बड़े करीने से एक डब्बे में सजा कर दिया। एक एक पत्र मन को जीत लेने वाला। लेकिन एक मन में घर कर गया। एक पत्र जो मैंने हिंदी में लिखा है अपनी माँ को जब वे मुझे इलाहाबाद में मेरे पिताजी की देखरेख में छोड़ कर शहर से बाहर गई हुई हैं। साल है १९४८।मैं 6 साल का हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि वे जल्दी वापस आ जाए क्यूँकि मुझे उनकी याद आ रही है। मैं उन्हें यह भी बताता हूँ कि मेरे पेट में दर्द है। हम इस बालसुलभ क्षण पर हँसते हैं और सोने के लिए चल देते हैं।

डेढ़ बजे तक बिस्तर में, मैं ढाई बजे के आसपास दर्द की वजह से जग जाता हूँ। पर जब दर्द जाता नहीं है तो मैं टहलकदमी द्वारा इसे दबाने की कोशिश करता हूँ और परिवारजन को परेशान नहीं करना चाहता हूँ। कोई राहत नहीं मिलती है और मैं फोन करता हूँ डॉक्टर को - सदा विनीत डॉक्टर बर्वे। जो दवा दी जाती है उसका कोई असर नहीं होता है। डॉक्टरों के चेहरे पर चिंता और जया के चेहरे पर 'मैं जानती थी' वाला भाव। पिछले कुछ महीनों से उन्हें अंदेशा था कि मेरा स्वास्थ्य गड़बड़ाने वाला है।

अब तो जांच-पड़ताल आसन्न है और अगले कुछ घंटे कष्टदायी दर्द और असुविधा से भर जाते हैं। तड़के सुबह से, घर के बाहर एकत्रित हुई भीड़ की आवाजे सुनाई देने लग जाती हैं, जो कि परम्परा के हिसाब से मुझे जन्मदिन की शुभकामनाएं देने आए हैं। उनके साथ ही मुझे पुलिस का सायरन और एम्बुलेंस का भी विशिष्ट सायरन सुनाई दिया। मैं बमुश्किल नीचे उतरता हूँ और प्रतीक्षारत स्ट्रेचर में लेट जाता हूँ। बाहर खामोशी छाई हुई है। स्टाफ़ और निकटी शुभचिंतक फ़ोयर में एकत्रित हो जाते हैं। कोई कुछ नहीं कहता है, सिवाय मीडिया के। वे कोलाहल मचाते हैं और एक एक्सक्लूसिव शॉट के लिए चिल्लाते हैं, एम्बुलेंस की पवित्रता का हनन करते हुए। वे स्थिति की संवेदनशीलता को कभी नहीं समझेंगे। पुलिस ट्रेफ़िक और प्रतीक्षारत भीड़ के बीच से गाड़ियां निकालने की कोशिश करती हैं, लेकिन वो पर्याप्त नहीं होता। मीडिया एक और अड़चन है इस आकस्मिक सवारी का जल्दी से जल्दी नानावटी तक पहुँचने में। अगर उनका बस चलता तो वे मेरे साथ स्ट्रेचर पर बैठकर मुझसे अपने सवालों के जवाब मांगते।

"सर, आपका जन्मदिन किस तरह मनाया जाएगा... क्या आप शाह रुख को निमन्त्रण दे रहे हैं!!"

संवेदनाहीन. कठोर.

सी-टी स्कैन के क्षेत्र में, सतत गति से मशीन का रम्भाना भयभीत कर देता है. सभी धातु की चीजे हटाने के बाद, धीरे धीरे स्ट्रेचर मशीन के गुफ़ानुमा छेद में प्रवेश कर जाता हैं. मशीन के पुर्जे घुमते हैं. घुटन का माहौल. थोड़ी खटर-पटर के बाद मशीन बोलती है - लगभग भगवान की आवाज में ...

"सर, आप एक गहरी सांस लें ...अब सामान्य रुप से सांस लें।"

जैसे ही मैं गुफ़ा से निकलता हूँ, मेरे ऊपर चेहरे दिखाई देते हैं। एक मेरी बांह पकड़ कर उसे नीचे दबा देता है। कुछ दूसरे लोग एक ट्राली ले कर जा रहे हैं - भयानाक उपकरणों के साथ। दस्ताने पहने जा रहे हैं, हरी शल्योपयोगी चादर बिछाई जा रही है, एक नर्स मेरी बांह पर कुछ करती है। तैयारी की जा रही है ताकि मेरी नस में कुछ डाला जा सके। एक द्रव्य डाला जाएगा जिससे कि सी-टी स्कैन के चित्र में शरीर के महत्वपूर्ण अंग अलग से दिखाई दें।

सुन्न करने वाले डॉक्टर खुद को तैयार करते हैं जिससे कि वे मेरी कोहनी के पास सुई लगा सके. बाकी लोग सतर्क हो जाते है किसी भी सम्भावना के लिए. मरीज चीख भी सकता है. पागलों की तरह भाग भी सकता है. मारपीट कर सकता है. "सर, बस थोड़ी सी चुभन ... आपको पता भी नहीं चलेगा." हाँ जैसे कि ...

सुई घुसती है चमड़ी के अंदर और इधर उधर खोजती है सतह की नस को. खून सीरिंज में उभर आता है.

"मिल गया ... सर, हो गया!!"

फिर से गड्डे में। द्रव्य शरीर में। शरीर गर्म होता जा रहा। गले से, पेट में और फिर ठीक नीचे वहाँ 'जहाँ आप जानते हैं कहाँ।" भगवान की आवाज। और कर्णभेदी खटर-पटर के बाद बाहर निकल कर फ़ैसला सुनना। लीलावती भागो। आंत्र बाधा। या तो मुड़ गई या अटक गई या दब गई या काम नहीं कर रही।

मैं सर झुका कर एम्बुलेंस की तरफ़ जाता हूँ। आसपास कई मरीज। एक आवाज। ' बच्चन जी, आप चिंता न करें। आपको कुछ नहीं होगा!' मैं उनके आशावाद के बदले मंद मुस्कान लौटाता हूँ, श्वेता मेरा हाथ पकड़ कर सहारा देती है, मैं गाड़ी में बैठ जाता हूँ जो कि अपने आप को तैयार कर रही है मीडिया की पीछा करने की आदत से बचने का।

यात्रा में हर बम्प पर दर्द होता है। अस्पताल पर निकलते वक़्त और भी ज्यादा। मैं झुज्कता हूँ और मुँह छुपा लेता हुँ मीडिया से बचने के लिए और प्रार्थना करता हूँ कि जल्दी से अपने गंतव्य के द्वार में प्रवेश कर जाऊँ। मेरे सिर पर अभिषेक का आश्वासन से भरा हाथ है और उनके आश्वासित शब्द सारी प्रक्रिया को मार्गदर्शन देते हैं।

'अंदर। अब हम गलियारों में हैं। अब हम लिफ़्ट में हैं। अब कमरे के अंदर। ठीक। ऐसे।"

नामांकित कमरा अभी तैयार नहीं है और मैं इसलिए एक अस्थायी पलंग पर लेट जाता हूँ। नर्स, स्टाफ़, डॉक्टर सब जुट जाते है और नियमित रुप से काम शुरु हो जाता है। आर-टी पहले लगाई जाएगी। रायल्स ट्यूब। एक मोटी ट्यूब जो कि नथुनों में डाली जाती है और फिर वहाँ से मुँह और गले में होते हुए आहार नली में। सब प्रयास असफल। आहार नली की बजाय विंड पाईप में चली जाती है और मेरा गला घोंटती है। मैं छटपटाता हूँ। हर प्रयास के साथ मेरा दर्द बड़ता जाता है। लेकिन करना भी आवश्यक है पेट तक सामन लाने-ले जाने के लिए। थोड़ी देर के लिए मुझे राहत दी जाती है फिर से कोशिश करने से पहले। एक घंटे के बाद मेरा निर्धारित कमरा तैयार हो जाता है। तुरंत मुझे वहाँ ले जाया जाता है। आर-टी लगाने का काम फिर से शुरु और कुछ प्रयासो के बाद ये सफलता पुर्वक लग भी जाती है। मैं हर सांस के साथ प्लास्तिक की ट्यूब और हर घूंट के साथ प्लास्तिक की ट्यूब निगलता हूँ। भयंकर। न खाना। न पीना। एक बूँद तक नहीं। दोनों हाथों पर और छेद किए गए। कई और सुईयाँ, और आई-वी के स्टेंड द्रव्य पदार्थों की बोतलों से लैस। तार ही तार सारे शरीर पर। लोग व्यस्त है मेरे शरीर के विभिन्न अंगो के साथ। यहाँ दबा, वहाँ छेद, यहाँ खींचतान। सब सामन्य प्रक्रिया।

मेरे जीवन का एक और दिन अस्पताल में। जैसे कि कई और भी।

मैं आँख खोलता हूँ और चारों ओर देखता हूँ। कुछ परिचित और कुछ अपरिचित चेहरे सामने आते हैं। मुस्कारा कर आश्वासन देते हुए। लेकिन जैसे मैं देखना शुरु करता हूँ मुझे अब ये ज्यादा ही जाना पहचाना लग रहा है।

ये है रूम 1101

वही कमरा जहाँ मेरी माँ थीं। लगभग दो साल तक, निधन से पहले। दिसम्बर में कुछ महीने पहले।

मैं फिर से अपनी आंखें बंद कर लेता हूँ।

1948। मेरा पत्र मेरी माँ के नाम।

"माँ .. आप जल्दी वापस आ जाओ। मुझे आप की बहुत याद आती है। मेरे पेट में दर्द हो रहा है!"

अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/17/shooting-pix/#more-472


Friday, October 17, 2008

176 वां दिन - भाग 2

लीलावती अस्पताल मुंबई अक्टूबर 16, 2008 10:33
सुभाष झा (पत्रकार) के कुछ सवालो के जवाब:
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176ii/

176 वां दिन - भाग 1

लीलावती अस्पताल मुंबई अक्टूबर 16, 2008 10:29
डी-एन-ऐ (समाचार पत्र) की शुभा के कुछ सवालो के जवाब :
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176i/

176 वां दिन

लीलावती अस्पताल # 1101, मुंबई अक्टूबर 11 - 16/ अक्टूबर 16, 2008 10:22 बजे लिखा गया

ये दिन अस्पताल में बीते। जांच और उपचार और चिंता और अनसोई रातो और दर्द के बीच ... और भी बहुत कुछ ...
लेकिन अब नर्स आश्चर्य करती है कि मैं स्क्रीन के सामने कितना समय बिताता हूँ और प्लग बाहर निकाल रही है। मैं इन दिनों के बारे में ज़रूर लिखूगा। शायद बाद में जब मैं अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए एकांत में रहूँ।

आप के लिए मेरा प्यार अब भी वैसा ही दृण और मजबूत है।

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176/

Thursday, October 9, 2008

174 वां दिन

(पहला फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08a.jpg)
मनाली, जब शाम ढले थोड़ी देर हो चुकी थी, 'शू-बाईट' (फ़िल्म का कामचलाऊ शीर्षक) की शूटिंग के दौरान। ये मेरे मोबाइल से नहीं लिया गया, बल्कि एक उम्दा कैमरे से लिया गया। सूरज पूरे दिन की थकान के बाद डूबकी लगाने ही वाला था। पेड़ के पत्तें उतर चुके थे और सूरज उसके पीछे फ़िसल रहा था, और मैंने फ़ोटो ले लिया। बहुत सुन्दर दृश्य था।

(दूसरा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08b.jpg)
ताज, नवम्बर के आरम्भ में, पिछले साल। अभिषेक वहाँ शूटिंग पर थे और हम सब भी आगरा में उनके साथ हो लिए। यह तड़के सुबह का वक़्त था, और हमें सलाह भी दी गई थी कि इसी समय हमें ताज जाना चाहिए क्योंकि उस समय वहाँ भीड़ कम होती है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं था। तमाशबीन लोग और मीडिया वालो ने हमे अकेले रहने का अवसर नहीं दिया। किसी और दिन मैं लिखूँगा कि हमारे दृष्टिकोण से हम क्या देखते हैं। आम तौर पर आप वही देखते हैं जो मीडिया दिखाना चाहता है, या वो छवि जो कि उनकी कहानी के साथ जंचे। लेकिन जल्द ही मैं आपको बताऊँगा कि 'पुल के दूसरी ओर से' दृश्य कैसा होता है?

(तीसरा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08c.jpg)
ताज एक बार फिर से, उसी यात्रा के दौरान। इस अजीब कोण का कारण है 'वाईड एंगल' लेंस और उसे ऐसे स्थित किया जिससे कि मीडिया और भीड़ फ़्रेम से बाहर रहे।

(चौथा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08d.jpg)
ऐश्वर्या, आगरा में होटल के कमरे की बॉलकनी पर। एक शानदार जगह और एक भव्य दृश्य - ताज धुंधला सा दिखाई दे रहा है पृष्ठभूमि में।

प्रतीक्षा, मुंबई अक्टूबर 9, 2008 11:33 pm

श्वेता मेरे ब्लॉग पर लिखने के विचार से उत्साहित है और मैं उत्साहित हूँ इतने सारे जवाब देख कर, कि लोगो ने चर्चा के लिए अपने अपने विषय भेजने का कष्ट किया। अब मैं सभी विचारों को एकत्रित कर के श्वेता को प्रस्तुत करने में लग जाऊँगा, ताकि वे चुन सके और लिख सके।

इस बीच, अखाड़े में, काम जारी है बिना किसी रोक-टोक के। 'तीन पत्ती' आरे मिल्क कालोनी के वातावरण में। मैं अभी भी जूझ रहा हूँ पात्र को पकड़ने में, उसकी चाल-ढाल, उसकी आदतें, उसके बोलने का ढंग, उसके उठने का ढंग। कुछ फ़ोटो खींचे हैं, जो आशा है कल तक आपके सामने होगे।

इन दिनों प्रिंट मीडिया से कुछ दिलचस्प सवाल मिले हैं। उपरी तौर से तो कहते है कि 'हम आपके आगामी जन्मदिन' पर एक व्यापक रुप से जश्न के अंदाज़ में कुछ विशेष लिखना चाहते हैं। लेकिन जन्मदिन के बहाने वे कुछ और भी पूछ लेते हैं। मुझे वे दिलचस्प लगे और मैंने उनका जवाब दे दिया। मैं इंतज़ार करूँगा जब तक कि वे छप न जाए, उससे पहले उन्हें ब्लॉग पर लिख देना अनैतिक होगा।

और इससे पहले कि मैं विदा लूँ --

"जहाँ दूसरे संदेह करें, वहाँ विश्वास करो। जहाँ दूसरे काम करने से इंकार करें, वहाँ काम करो। जहाँ दूसरे बर्बाद करें, वहाँ बचाओ। जहाँ दूसरे मैदान छोड़ भाग जाते हैं, वहाँ तुम डटे रहो। दूसरो से अलग बनने का हौसला रखो। विजेता बनो!!"

“D pessimist c’s difficulty in every opportunity; n optimist c’s d opp in every difficulty.

"निराशावादी को हर मौके में कठिनाई नज़र आती है। आशावादी को हर कठिनाई में एक मौका दिखता है।"

ये आखरी वाला पत्नी ने भेजा था मोबाइल पर ...

(और कृपया मुझे भाषण न दें कि मुझे जया को इस तरह से संबोधित नहीं करना चाहिए। कई लोगो को शायद ये न पता हो, लेकिन अंग्रेज़ी में, अपनी पत्नी को संबोधित करने का ये एक सबसे प्यारा तरीका है।)

प्यार और उत्सव की शुभकामनाओं के साथ …

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/taj-pix/

Wednesday, October 8, 2008

173 वां दिन - भाग 1

प्रतीक्षा, मुंबई 8/9 अक्टूबर, 2008 1:12 am

दशहरे की शुभकामनाएँ!!
बुराई पर अच्छाई की विजय

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/day-173i/

173 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई 8 अक्टूबर, 2008 11:55 pm

"जीवन में आप यह कभी नहीं जान पाएगे कि आपको किस बात की कमी है जब तक कि वो आपको मिलती नहीं है; और आप यह कभी नहीं जान पाएगे कि आपके पास क्या है जब तक कि वो खो न जाए। इसलिए जो कुछ भी आपके पास है उसकी कद्र कीजिए।'

मैं उन सब की कद्र करता हूँ जो मेरे पास है। आप!

आप - अपना कीमती वक्त खर्च करते है मुझ तक पहुँचने के लिए और अपना प्यार और स्नेह प्रदान करते हैं। आपके जीवन में मेरी उपस्थिति को जताते हैं। मेरी गलतियों को सुधारते हैं। सुझाव देते हैं, तालियाँ बजाते हैं, मेरे साथ हँसते हैं, मेरे साथ रोते हैं। मैं आप सब का आभारी हूँ।

आप - मेरी ताकत बन गए हैं। और मेरी कमजोरी भी। मैं आप के बारे में दिन भर सोचता हूँ। क्या आपको पसंद आएगा, क्या आपका मनोरंजक लगेगा और क्या आपको कुछ ज्ञान दे जाएगा। मैं कैसे सब के साथ जुड़ सकूँ, कैसे मैं आज कुछ ऐसा लिखूँ जो आपको पढ़ने में अच्छा लगे। कैसे मैं उन सैकड़ों लोगों का उत्तर दे सकूँ जो मुझे लिखते हैं।

आप - मेरा ही एक अंग बन चुके हैं। आप मेरे दु:ख और सुख अपने साथ बांटते हैं। मेरी पोशाक और मेरी यात्रा। मेरा मूड और मेरी हरकतें। मेरे विश्वास और मेरे संबंध। मेरा काम। मेरा उत्थान और मेरा पतन।

आप - मेरा दूसरा अस्तित्व है। मैं आपसे सब कुछ खोल कर कह देता हूँ। इतना जितना मैं शायद पहले कभी नहीं करता।

आप - जिन्होंने मेरा विश्वास जीत लिया और भरोसा कर लिया और दोस्ती कर ली। और मैंने आपकी भक्ति।

आप - अद्वितीय हैं। परोक्ष और अपरोक्ष रुप से। हमने मिल कर अपनी एक दुनिया बनाई है। यद्यपि, एक छोटी सी दुनिया। लेकिन एक ऐसी दुनिया जिसमें एक बहुत बड़ी भावना समा जाती है।

मैंने इसे शुरू किया। और आप इसमें शामिल हो गए, पूरी ईमानदारी से 173 दिन से मेरे साथ हैं। मैं आपका आभारी हूँ और इसे हमेशा याद रखूँगा।

मैंने अपनी बेटी श्वेता को कहा है कि वे मेरे ब्लॉग में योगदान दे। वे एक समझदार और जीवंत दिमाग वाली है। मैं उन्हें एक विषय दूँगा लिखने के लिए। लेकिन बेहतर होगा कि आप कोई विषय दें।

तो ये रहा आपके लिए प्रश्न --

वो क्या है जिस पर आप चाहते हैं कि श्वेता टिप्पणी करें?

अपने जवाब भेजें। मैं उन्हें छाँट कर, श्वेता को प्रस्तुत कर दूँगा। फिर वे जो चाहे उसमें से चुन ले। और उसके बाद, हो सकता है कि हम एक बहस शुरु कर दे। एक ऐसी बहस जिस पर इस ब्लॉग द्वारा नज़र रखी जा सके। एक ऐसी बहस जिसका परिणाम सब देख सके।

अगर इसमें रुचि है तो मुझे बताएँ।

मैं भारी मन से विदा लेता हूँ, लेकिन बहुत प्यार के साथ -

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/day-173/

172 वां दिन

शूटिंग स्थल पर, मुंबई 8 अक्टूबर, 2008 / 7 अक्टूबर, 2008 9:00pm के लिए लिखा गया

हाँ … तो हुआ ये कि 'सर्वर' के 'अपग्रेड' के चक्कर में मैं उनके निर्देशानुसार इस ब्लॉग का प्रयोग करने में असमर्थ रहा। लेकिन अब यह काम कर रहा है और मैं वापस आपके साथ हूँ …
'तीन पत्ती' की शूटिंग एक जीर्ण-शीर्ण अवस्था में त्याग दिए गए एक कारखाने में हो रही है, जिसके अपने फ़ायदे हैं। कोई नहीं आता है यहाँ आपसे मिलने के लिए।

काम देर रात तक चलता रहा और फिर घर पहुँचा तो वहाँ मेहमान आए हुए थे एक ज्ञानवर्धक डिनर के लिए। बहुत अच्छा वार्तालाप हुआ और मज़ाक भी। श्वेता मुखिया थी कई विषयों पर। प्राचीन इतिहास, मानव विकास, एक राष्ट्र के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएँ, वे व्यक्तित्व जिन्होंने हमारी सोच को एक दिशा दी और उस पर हावी हुए, समकालीन (और असमकालीन) पुस्तके और लेखक। बहुत ही आनंददायी शाम। बहुत ज्ञानवर्धक और ऊर्जापूर्ण।

पर उससे पहले एक छोटा सा नमन देवी को। आज अष्टमी थी और जया और मैं पारंपरिक बंगाली परिधान पहन कर दुर्गा माँ की पूजा करने और उनसे प्रार्थना करने गए। बहुत छोटी, मधुर और भक्ति से ओतप्रोत। अच्छा लगा।

बाद में और लिखूँगा। अभी के लिए …

'शुरुआत करो उससे जो ज़रुरी है। फिर वो करो जो सम्भव है। अचानक तुम पाओगे कि जो असम्भव है उसे भी तुम कर पा रहे हो।'

सब को मेरा प्यार,
अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/08/day-172/

Monday, October 6, 2008

171 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई अक्टूबर 6, 2008 10:59 pm

ज़िंदगी अब फिर पर लौट रही है। एक ढर्रे पर। एक नियमत तौर पर। ये सुबह तड़के ही आप को झकझोड़ देती है। मैं सुबह 3 बजे उठ जाता हूँ - यह सोचकर कि 6 बज गए हैं, और मुझे उठ कर जिम जाना चाहिए, व्यायाम करना चाहिए, दिल पर जोर डालना चाहिए, अच्छी तरह से साँस लेनी चाहिए। इससे काफ़ी ऊर्जा मिलती है।

पर जब काम शुरू होता है, तो मुद्दें और परिस्थितियां, प्रतिबद्धता और राय, अटकलें और सलाह, सब गड्डमड्ड हो कर, मिलजुल कर एक ऐसा विशालकाय पीड़ादायक पहाड़ बन जाते हैं, जो मानो आपकी चमड़ी और आत्मा को उधेड़ कर ही रख देगा।

इतनी नफरत और बुराई भरी हुई है उनमें जो कि प्रकट रुप से किसी खोज में हैं। लेकिन वे केवल द्वेष ढूंढने में ही सफल हो पाते है। शरीर, मन और आत्मा के समन्वय का कितना कुछ हिस्सा जाया हो जाता है एक विनाशकारी मन के निर्माण में। एक ऐसा मन जो कि सच्चाई को नकारता रहता है। एक प्रतिगामी शरीर जो कि बिना सोचे समझे हर किसी को अयोग्य ठहराने का प्रयास करता है। भावी पीढ़ी के लिए एक ऐसा विलेख लिख जाता है जिसकी न तो किसी को ज़रुरत है और न ही इच्छा।

ऐसे मन और ऐसे विचार और ऐसी अभिव्यक्ति से हमारा सामना क्यों होता है? क्या ये हमारी पूर्व-निर्धारित किस्मत और परिस्थिति है। क्यों बुराई की परछाई पड़ती है अच्छाई पर? क्यों बुरे का कमीनापन शुद्ध साहस को गंदा कर देता है। तकि त्रुटिपूर्ण अस्तित्व के दाग़ को एक स्थायित्व मिल सके?

मैं कुछ नाजायज़ सवाल पूछ रहा हूँ और अवांछित से भी।

समझदारी तो इसी में है कि मैं एक सामान्य और श्रमसाध्य रुप में पेश आऊँ। खैर, अभी के लिए …

"जो बाहर देखता है वो सपने देखता है, जो अंदर देखता है, वो जग जाता है।"

"एक छोटा सा बिंदु एक बड़े वाक्य पर विराम लगा देता है। लेकिन … 3 बिंदु मिल जाए तो वे उस वाक्य को एक निरंतरता दे सकते हैं। कमाल है, लेकिन सच है कि हर अंत एक शुरुआत हो सकता है। "

"कभी कभी भगवान हमसे हमारी क्षमता से ज्यादा काम करवाता है। वह हमारी परीक्षा लेता है। क्योंकि उसे हमारे उपर हमसे ज्यादा विश्वास है।"

"विजेता मौके ढूंढता है और जब वे नहीं मिल पाते हैं तो खुद ही उन्हें बना लेता है।"

"दूसरों की गलतियों से सीखें। आप इतने दिन नहीं जी सकते कि आप खुद इतनी गलतियां कर सके।"



नमस्कार, आदाब, सत श्री अकाल, शुभ रात्रि, शब ए खैर, गुड नाईट!!

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/06/day-171/

Sunday, October 5, 2008

170 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई अक्टूबर 5, 2008 10:56 pm

आज 169 वें दिन की सिर्फ़ 100 टिप्पणियों का जवाब दे पाया और बुरा लग रहा है कि बाकी को नहीं दे पाया। लेकिन मैं दूँगा समय मिलते ही।

तस्वीरें। एक संगीत कार्यक्रम की मेरे मोबाइल से, बहुत दूर से, ली गई, लेकिन कुछ अंदाज़ा तो दे ही देती है कि वहाँ क्या हो रहा था। दूसरी दो तस्वीरें मेरी शूटिंग से हैं। 'तीन पत्ती' फ़िल्म के एक शॉट के विडियो असिस्ट की तस्वीरें।

पहले दिन की शूटिंग में बहुत गड़बड़ और अनिश्चितता और परेशानी होती है। पता ही नहीं चलता है कि चरित्र को कैसा रंग दिया जाए, यूनिट नया होता है और एक भयानक आत्म चेतना का अहसास। उम्मीद है कि वक़्त के साथ साथ सब ठीक हो जाएगा।

बच्चें मेरे साथ मुंबई आ गए हैं। दशहरा-दीवाली की वजह से लम्बी छुट्टी है उनकी। कितनी खुशी होती है उन्हें घर में उछल-कूद करते हुए देखकर। जब वे आते हैं तो दीवाली, दशहरा, होली सब एक साथ ही मना लिए जाते हैं। स्टाफ भी खुश रहता है, उनके कमरे साफ़ किए जाते हैं और उनकी सारी ज़रुरते पूरी की जाती हैं। बिस्तर बड़े करीने से बनाए जाते हैं, उनके खेल आदि के सामान अपनी जगह पर रख दिए जाते हैं। और जो भोजन उन्हें पसंद है वो खास तौर से रसोई में बनता है। अचानक पूरा घर सक्रिय हो जाता है और एक नई शक्ति का संचार हो जाता है। बच्चें एक अपने अनूठी अंदाज़ में कितनी खुशी ले आते है अपने साथ।

आज के बच्चे तेजी से बोलते हैं और उतनी ही तेजी से सोचते भी है। मुझे उनकी बराबरी करना मुश्किल लगता है। और वीडियो गेम्स?? वे तो इसके बादशाह हैं। हर खेल में मैं उनसे हारा जिस जिस भी खेल में उन्होंने मुझे चुनौति दी। और एक बार वे शुरु हो जाए फिर तो एक डायनासौर ही हटा सकता है उन्हें विडियो गेम्स से।

बच्चों का और श्वेता का आना अच्छा लग रहा है। ऐश्वर्या दिल्ली से गोवा चली गई शूटिंग के लिए। अभिषेक और ऐश्वर्या थोड़े दिन बाद मणिरत्नम की फिल्म के लिए चले जाएगे एक लम्बे अरसे के लिए। बच्चें दिल्ली चले जाएगे स्कूल के लिए। जया और मैं इस कमरे से उस कमरे अकेले घूमते रहेंगे, उनकी याद करते हुए।

बच्चें। जितना हम उन्हें चाहते हैं, उतना ही जीवन उन्हें हमसे दूर ले जाता है।

मेरा प्यार,

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/05/mobile-pix-2/

Saturday, October 4, 2008

169 वां दिन

सोपान, नई दिल्ली, अक्टूबर 5, अक्टूबर 4, 2008 के लिये लिखा गया, 8:35am

माफ़ कीजिए!

बस नाती-नातिन और उनकी मस्ती में इतना व्यस्त रहा कि मैं कल रात आ न सका आपके और ब्लाग के पास।

संगीत का कार्यक्रम 'स्नैप' बहुत आनंददायक रहा। इतनी मेहनत से बनाया गया और प्रस्तुत किया गया। हर विभाग में कमाल की बारीकी और मेहनत दिखाई दी। हर छोटे बच्चे ने ईमानदारी से और लगन से अपनी भूमिका अदा की। इतनी खुशी हुई। कमाल का आत्मविश्वास था, मन को लुभाने वाले इन युवा अभिनेताओं में!

सेट, परिधान, गीत और नृत्य और सबसे महत्वपूर्ण बात इस कार्यक्रम की अवधारणा, बस बिल्कुल असाधारण। और मैं तो कहूँगा कि छोटी नव्य-नवेली ने, नि:संदेह, अपने नृत्य से कार्यक्रम में चार चाँद लगाए।

एक उल्लेखनीय और आत्मीय और सबसे सुखद शाम गुज़री बच्चो के साथ, और दिल्ली के पुराने दोस्तों से मुलाकात, कुछ कालेज के, कुछ स्कूल के, अब सब दादा-दादी हैं, सब अपने पोतो-पोती को समर्पित, सफ़ेद बाल वाले वृद्ध। कैसे समय हमें बदल देता है। शाम खत्म हुई घर पर रात के भोजन के साथ जिसमें समधी परिवार भी साथ थे, और हँसी-खुशी के साथ कार्यक्रम के बारे में कई किस्से सुनाए गए, कई बाते की गई।

बच्चे होते ही इसलिए हैं। वे इस ब्रह्मांड की बनाई हुई सबसे अच्छी चीज है। कई लोग चाहते हैं कि एक इस तरह की गोली बनाई जाए ताकि बच्चे हमेशा ऐसे ही रहे - प्यारे, लुभावने और मासूम।

कितनी अद्भुत होगी ऐसी दुनिया!!

अब मैं वापस काम की और लौट रहा हूँ। शूटिंग के लिए। 'तीन पत्ती' के लिए। हड़ताल खत्म हो गई है। समस्या सुलझ गई है शायद। कार्यकर्ताओं को सम्मान दिया जाना चाहिए और यथायोग्य श्रेय। वे फ़िल्म उद्योग की रीढ़ की हड्डी हैं।

दिन के दौरान और लिखूँगा, तब तक के लिए ..

अमिताभ बच्चन

Friday, October 3, 2008

168 वां दिन

सोपान, नई दिल्ली अक्टूबर 3/4, 2008 2:00 am

मैं नई दिल्ली में हूँ। सोपान में। सीढ़ियाँ। घर के बीच में एक सीढ़ी है जो ऊपरी मंजिल तक जाती है, उसी को देख कर मेरे पिता ने इस घर का नाम रखा था, सोपान । सोपान, उनकी एक पुस्तक का शीर्षक भी था।

गुल मोहर पार्क। '60 के दशक के शुरु में ये एक जंगल था। लंबी जंगली घास उगती थी यहाँ। न सड़क, न बिजली। एक ऐसा क्षेत्र जिसे सरकार ने लेखकों और पत्रकारों को आवंटित कर दिया था। मुझे याद है जब मैं यहाँ मेरे पिता को मिले प्लॉट को देखने आया था। रात का समय था, और कार की रोशनी ही एक रोशनी थी जिसके सहारे हम प्लॉट और प्लॉट के आसपास की जगह का अंदाजा लगा सके। भयग्रस्त चुप्पी में भेड़ीयों की चीख। ये जगह केवल कुछ सौ गज आगे थी, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) से - जो कि एक प्रशंसित चिकित्सा संस्थान है।

आज सोपान, गुल मोहर पार्क, दिल्ली का एक तरह से केंद्र ही है। घर, अस्पताल, स्कूल, प्रसिद्ध सिरि फोर्ट सभागार और कालोनियाँ ही कालोनियाँ, हाईवे, फ़्लाई-ओवर, बाज़ार।

इस खुले विस्तार पर, मैंने ये घर बनवाया था अपने माता पिता के लिए, कुछ सफलताओं के हाथ आ जाने के कुछ वर्षों बाद। मेरे पिता का संसद में राज्य सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया था और अब उन्हें रहने के लिए एक जगह की जरूरत थी। मैं उन्हें मुंबई मेरे साथ रहने के लिए ले आया था; जो कि एक आम भारतीय परंपरा है। वे आए, और हमारे साथ रहे, लेकिन कहीं मुझे लगा कि उन्हें एक ऐसे घर की ज़रुरत है जो उन्हें अपना लगे। एक तरह का स्थायित्व, जिसे वे अपना कह सके।

एक औरत और एक पत्नी कभी आराम से नहीं रह सकती जब तक कि वो अपना एक छोटा सा घर न बना ले। यह उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है, जब पिता का घर छोड़ने के बाद वो शादी करती है एक नया जीवन शुरू करने के लिए। ये मेरी नज़र में, एक औरत के जीवन का सर्वोच्च बलिदान है। अपनी जिंदगी के शुरु के 20-25 साल जिस घर में बीते, उसे छोड़ देना और दूसरे घर में जा कर फिर से बसना। अपने नए परिवेश को अब अपना घर कहना। फिर से ज़िंदगी शुरू करना। बहुत कठिन है। इसलिए मेरी नज़रों में नारी हमेशा प्रशंसा की पात्र रही हैं। इसलिए मुझे तलाक और अलगाव की बातें सुनकर बहुत दु:ख होता है। टूटे हुए घर और बिखरे हुए परिवार। बहुत दु:ख होता है।

पत्नी, चाहे जैसे हो, या चाहे जैसी परिस्थिति हो, हमेशा अपने घर की रक्षा करती है, पोषण करती है, जैसे वो कर सकती है। वो इसे सजाएगी, संवारेगी और चलाएगी, जैसा कि कोई और नहीं कर सकता। और न ही किसी और व्यक्ति को इसे चलाने की अनुमति दी जाएगी। चाहे उनकी बहुत ज्यादा उम्र हो जाए, बूढ़ी हो जाए, असहाय हो जाए, लेकिन घर को चलाने के विषय में उनका ही निर्णय अंतिम रहेगा। आप की मजाल नहीं कि आप कोई सवाल करे, सुझाव दे या अपना मंतव्य जाहिर करे। पति महोदय! आपको चेतावनी दे दी गई है। इन झमेलों से दूर रहें अगर आप चाहते हैं कि घर में शांति बनी रहे … और खाना भी!!

सोपान।
मेरे पिता को अपने लेखन के लिए एक छोटा कोना मिल गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा का अंतिम भाग यहाँ पूरा किया। उनकी किताबें और उनकी मेज अभी भी वैसे ही रखी है जैसे वे उन्हें छोड़ गए थे। सब कुछ - उनकी निजी वस्तुएँ, कागज और लेखन सामग्री, सब अचल और स्थिर। मैं अब वहाँ सोता हूँ जहाँ वे सोते थे और जहाँ वे बीमार पड़ गए थे, आत्मकथा के अंतिम अध्याय को लिखने के बाद, जिसकी उन्हें आशंका थी और इसकी घोषणा उन्होने तभी कर दी थी जब आत्मकथा का चौथा खंड शुरू ही किया था। जया अब इस घर की संरक्षक हैं, और वे अधिकतम समय यहीं बिताती है, संसद की गतिविधियों के कारण। उन्होंने कुछ कोने सही किये हैं और कुछ सजावटी परिवर्तन। ऐसे परिवर्तन जो कि स्वागत योग्य है, आत्मीय है और सुरुचिपूर्ण। आजकल वे व्यस्त हैं परिवार के पुराने कागज़ातों को इकट्ठा करने में। पुराने पत्र, इलाहाबाद और दिल्ली और नैनीताल और कोलकाता के हिस्से। पांडुलिपियाँ और स्केचेस और चित्र जो कि अनदेखे से पड़े थे, अपनी बहाली की भीख माँगते हुए। सब धीरे धीरे दीवारों और कमरों में पहुँच रहे हैं, कुछ यहाँ तो कुछ मुंबई में। कुछ को डिस्क में ढाल दिया गया है। कुछ को कम्प्यूटर में उतार दिया गया है। एक बहुत ही मूल्यवान और श्रमसाध्य कार्य। सब भावी पीढ़ी के लिए।

सोपान।
यह एकजुटता का एक डेरा है। दस-बारह प्राणियों का भरा-पूरा निकट परिवार, यहाँ साथ रहता है और हँसी-किलकारियों से भर देता हैं - जैसा कि एक संयुक्त परिवार में होता है। यहाँ जीवन के कुछ कठोर क्षण भी गुज़रे हैं। एक दीवाली पर मेरा हाथ यहीं जला था और वो दर्दनाक दृश्य जब मेरी माँ दौड़ी-दौड़ी सीढ़ियों से ऊपर हमारे बेडरुम में आई थी, सांस रोके - श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार ले कर। अभी भी वो अच्छी तरह से याद है। और एक नए वर्ष की पूर्व संध्या की सुखद घड़ी जब हमने श्वेता की निखिल के साथ सगाई की घोषणा की।

और आज मैं यहाँ देखूँगा अपने पोते-पोती नव्य-नवेली और अगस्त्य का एक संगीत कार्यक्रम जिसे उनकी माँ ने तैयार किया है, जिससे अर्जित आय उन बच्चों की देखभाल के लिए खर्च की जाएगी जिन्हें कैंसर हैं।

ऐश्वर्या मुंबई से सुबह कोलकाता गई थी एक समारोह के लिए और यहाँ देर से आई। अभिषेक सुबह आएगे। सोपान फिर से नए चेहरों से चमक उठेगा, वो घर जिसे मेरी माँ ने बनाया और सम्हाला।

मैं उस फोटो के सामने खड़ा हूँ जिसमे हम - माँ, पिताजी, मेरे भाई और मैं हूँ। ये फोटो तब लिया गया था जब ये घर बस बना ही था। जया ने बड़े ध्यान से एक दीवार सुसज्जित की है, बीते दिनों की याद ताज़ा करने के लिए। बीच बीच में परिवार के उन सदस्यों की भी तस्वीर है जो बाद में हमारे परिवार में शामिल हुए। निकि (निखिल) और नंदा परिवार, पोते-पोती और अब ऐश्वर्या। अभिषेक की दो साल की उम्र की फोटो। अभिषेक अब 6'3" के हैं। युवा अमिताभ अजीब तरह की हेयर-स्टाईल में। अमिताभ अमिताभ की हेयर-स्टाईल में। और अमिताभ - ठोड़ी पर सफेदी लिए हुए। जया एन सी सी की वर्दी में। जया अच्छी तरह से खड़े सांसदों की भीड़ में।

अंत में जीवन सिर्फ़ एक फोटो बन के रह जाता है दीवार पर।

आप को मेरा प्यार और प्यार --

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/04/day-168/

167 वां दिन - भाग 2

मीडिया पर मीडिया से एक दिलचस्प लेख.

विषय: प्रिंट मीडिया किस तरह हावी हो रहा है इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर।

मैंने देखा है कि प्रिंट मीडिया में इस मुद्दे पर काफ़ी बहस और बातचीत हो रही है। मैं इसे उचित और निष्पक्ष और प्रासंगिक मानता हूँ। और मैं इसकी चर्चा करना आवश्यक समझता हूँ, क्योंकि मैं आज के समाज के लिए इसे महत्वपूर्ण और प्रासंगिक पाता हूँ। हम पर अति का प्रहार हो रहा है और उससे हमें नुकसान हो सकता है। यह स्पष्ट है कि इसमें सुधार की जरूरत है, लेकिन आशंकित रहना भी ज़रुरी है।


अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/02/news-cutting/#more-463

167 वाँ दिन - भाग 1

अस्सलामुअलाईकुल वा रहमतुल्लाही वा बरकतू

अगर इरादे नेक न हो तो सारे अच्छे कर्म बेकार हो जाएगे।
हमारे सलह, सदाक़ात, सियाम (उपवास) या अन्य अच्छे कर्म का
कोई मूल्य नहीं यदि हमारे इरादे नेक नहीं है. एक भक्त और एक पाखंडी की प्रार्थना एक जैसी हो सकती है लेकिन उनके इरादें (उद्देश्य / प्रयोजन) अलग होते हैं।. रसूल अल्लाह (सल्लालाहू अलाही वा सल्लाम) ने कहा है कि "कर्मों का इनाम उनके आशय पर निर्भर करता है और कहा
हर व्यक्ति को इनाम उसके इरादे के अनुसार मिलेगा।" इरादा दिल में होता है। अगर हृदय भ्रष्ट है
इरादा भी भ्रष्ट होगा, और हर वो काम, जो गलत मंशा के साथ किया जाए वो व्यर्थ ही होगा।

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/02/intentions/#more-461

167 वां दिन

सर्वशक्तिमान
आपको विशेष आशीर्वाद
प्रदान करे
इस ईद के पर्व पर,
और आप के चारों ओर
प्यार, शांति, प्रसन्नता और खुशी रहे
आज और हमेशा

ईद मुबारक!

ये नवरात्रि आपको 9 सौगाते दें -

1 शांति

2 शक्ति

3 संयम

4 सम्मान

5 सफलता

6 सरलता

7 समृद्धि

8 संस्कार

9 स्वास्थ्य

शुभ नवरात्रि !!

प्रतीक्षा, मुंबई 2 अक्तूबर, 2008 11:55 pm

'प्रार्थना भगवान का मन बदलने का प्रयास नहीं है, बल्कि एक ऐसा प्रयास जिससे कि भगवान हमारे मन बदल दे"

'आप को अपने गुस्से के लिए दंडित नहीं किया जाएगा; आपको आपका गुस्सा ही दंड देगा.'

'ईमानदारी हमें कभी धोखा नहीं देती है, वह हमें हमेशा देती जाती है.'

... .. और प्रेरणादायक उद्धरण/उक्तियाँ मेरे दैनिक जीवन में और मोबाइल पर मिलती रहती है और मेरे द्वारा आप तक और करोड़ों और लोग जो इस कम्प्यूटर की दुनिया में रहते हैं। फिल्म उद्योग के कर्मचारी संघ के आह्वान पर हड़ताल हो गई है और सारा काम ठप्प है। कोई शूटिंग नहीं - न अंदर न बाहर। इसलिए हम घर पर हैं और परिवार के साथ ये अनमोल क्षण बिता रहे हैं और इंतज़ार कर रहे हैं उन एसोसिएशन का जो हमें अगले कदम की दिशा बदलाएँगे।

मैंने कहा था कि मैं 'द्रोण' पर अपनी राय दूँगा, लेकिन हमने इसे देखा ही नहीं जिस दिन हम इसे देखने वाले थे, और जब देखी, तब तक दूसरे लोगो ने भी देख ली थी, और अपनी राय दे चुके थे, तो मेरा कुछ कहना या टिप्पणी करना मुझे व्यर्थ लगा। हालांकि मैं इतना ज़रुर कहूँगा कि फिल्म की प्रस्तुति और अवधारणा में एक भव्यता है। दिखने में इतनी सुंदर कि इसके जैसी फ़िल्म आज तक भारतीय सिनेमा में नहीं देखी गई। जितने भी लोग इस फ़िल्म से जुड़े हैं,s अब ने खूब मेहनत की और किसी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। वर्तमान से कल्पना की दुनिया का सफ़र सहज और सरल तरीके से किया गया, यह बात मेरे एक पत्रकार मित्र ने कही। यह एक बहादुर और साहसी प्रयास है गुणवत्ता दिखाने का और कुछ अलग कर गुज़रने का, सबसे पहले करने का। हमारे जीवन में हम कितनी बार कह सकते हैं कि हम सबसे पहले थे जिन्होंने कुछ नया किया, ये कहा मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी ने। इसके बाद सब व्यापार है। और मैं उसका ईमानदारी से सामना करने में हमेशा असफ़ल रहा।

और इस तरह एक और दिन आ गया। नए क्षितिज की तलाश में। उन चुनौतियों का सामना करने, जो अभिनव हैं, सृजनात्मक हैं और नए संघर्ष से भरपूर। हमें सर्वशक्तिमान का आभारी होना चाहिए कि उसने हमें उन परिस्थितियों में खड़ा कर दिया जहाँ हमें यह सब करने के लिए एक अवसर मिला है। क्यूंकि इसके बिना ज़िदगी बहतुत मनहूस होगी।

बेहतर तो यही है कि हम एक घोड़े पर सवार है, गिरे तो उठ कर फिर सवार हो जाए, बजाय इसके कि कभी घोड़े पर चढ़ ही न सके।

बहुत प्यार और स्नेह और शुभकामनाएं --

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/01/eid-images/#more-462

Wednesday, October 1, 2008

166 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई अक्टूबर 1, 2008 10:44 pm

"जो ज्यादा सोचते हैं, बहुत कम काम कर पाते हैं"
"सफलता स्थायी नहीं है। असफलता घातक नहीं है। लगे रहने की, जुटे रहने की हिम्मत ही सबसे ज्यादा मायने रखती है।"
- विंस्टन चर्चिल
मेरे मोबाइल पर दो और बेहतरीन उद्धरण/ऊक्तियाँ।

और वे इतनी मूल्यवान हैं।

कितना सच कहा है कि हम सफलता को स्थायी रूप में न देखे। एक भी क्षण ऐसा नहीं है जब कोई यह कह सके कि उनकी सफलता स्थायी है। चाहे कारोबार मे हो या किसी और व्यवसाय में। कहीं भी नहीं। और हमारे फिल्म उद्योग में तो बिलकुल ही नहीं। हर दिन ज़िंदा रहने के लिए एक संघर्ष है - बेहतर काम का, सुधार का, स्वीकृत होने का, सफलता हासिल करने का संघर्ष। लेकिन वहाँ भी पहुँच कर, कोई गारंटी नहीं है कि आपका स्थान कायम रहेगा या कोई आवश्यकता ही न हो उसकी देखभाल की, विचार की और उस पर ध्यान देने की.

और विफलता। कभी घातक नहीं होती। यह घातक कैसे हो सकती है, जब असफलता अंतिम मंजिल ही नहीं है। हाँ, लगे रहने की हिम्मत ही मायने रखती है। क्योंकि जब आप लगे रहते हैं, तो आप सफलता की संभावनाओं के द्वार खोल देते हैं। आप अतीत की असफलता पर काबू पाने वाली संभावनाओं के द्वार खोल देते हैं।

जब आप असफल हो जाते हैं, तो एक तरह से सीढ़ी के नीचे वाली पायदान पर पहुँच जाते हैं। लेकिन जब आप उपर की ओर देखते है तो आप को शेष सीढ़ी और उसके पायदान दिखते हैं। ये वे पायदान हैं जिन पर चल कर हमें उपर चड़ना है, उपर उठना है। और ये कभी नहीं होगा अगर हम साहसपूर्वक प्रयास न करें और लगे रहे। जब हम हार मान लेते हैं और निष्क्रिय हो जाते हैं, तब हम यह मानने को बाध्य हो जाते हैं कि हमारे उपर की पायदानों पर चढ़ना असम्भव है। लेकिन बिना चढ़े हम कैसे कह सकते हैं कि उन पर चढ़ना असम्भव है। इसलिए मैं हर सुबह उठ कर उपर देखता हूँ और देखता हूँ ज़िंदगी की सीढ़ी की पायदानें और अपने आप को तैयार करता हूँ ताकि उन पर चढ़ने का प्रयास कर सकूँ। मैं थक सकता हूँ, ताकत और ऊर्जा कम हो सकती है, लेकिन मैं प्रयास करता हूँ कि मैं जुटा रहूँ, लगा रहूँ। और मैं प्रयास करता रहता हूँ, करता रहता हूँ, करता रहता हूँ और उस भावना को कभी हावी नहीं होने देता जिसमें साहस की कमी झलके।

आप में से बहुतो ने मेरे काम करते रहने की इच्छा पर अंकुश लगाया है। बहुत से मेरी उम्र और मेरी तबीयत को देख कर जली-कटी कहते हैं। उनसे मुझे यही कहना है कि हो सकता है कि आज मैं सीढ़ी की सबसे नीचे वाली पायदन पर हूँ, लेकिन जब तक सीढ़ी पर हूँ और उपर जाने वाली पायदाने दिख रही है, मैं लगा रहूँगा सीढ़ी चढ़ने में। फिर से शीर्ष तक, शिखर तक पहुँचने के लिए नहीं। वह तो धृष्टता होगी। लेकिन सीढ़ी पर बरकरार रहने के लिए। चाहे कोई भी पायदान हो।

और सर्वशक्तिमान मुझे हिम्मत दे कि मैं ऐसा कर सकूँ ..
नवरात्रि दिवस के स्थापना पर बधाई ..
ईद के लिए बधाई ...

यह बात दिव्य नहीं है कि विभिन्न विश्वासों के धार्मिक समारोह, एक साथ, लगभग एक ही समय पर आते हैं

"बैर बढ़ाते मंदिर मस्जिद, मेल कराती मधुशाला"

सब को मेरा प्यार और ऐसी आशा कि आप के सारे समारोह दिव्य हो --



अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/01/day-166/

165 वां दिन

"एक वृक्ष अपने फल के द्वारा जाना जाता है, और इंसान अपने कर्मों से"
"दो विचार है जो कि आपके जीवन का रुख तय करते हैं - एक तो यह कि आप अपने आप के बारे में क्या सोचते हैं जब आपके पास सब कुछ नहीं है। दूसरा यह कि आप दूसरों के बारे में क्या सोचते हैं जब आपके पास सब कुछ है।"
"दो तरीके है शिखर पर पहुँचने के, अपने क्षेत्र में अव्वल आने के - एक, इतना परिश्रम करो जितना कोई ओर न कर सके। दूसरा ये कि आप सबसे पहले करो, कोई ओर करे उससे पहले।
"जिसे आप जानते हैं कि ये कभी हो नहीं सकता, तो उस का इंतज़ार करना कठिन है। लेकिन, उस से भी कठिन है, उसे त्याग देना जिसे आप बहुत चाहते हैं।"
"सम्मान माँगना, भीख माँगने की तरह है! इसके बजाय अगर आप सभी को सम्मान देते हैं, वे स्वतः ही आप को भी सम्मान देंगे।
"ख़ुद से प्यार करो। अपनी समझ के साथ के छेड़खानी करो। सपनों के साथ रोमांस करो। सादगी के साथ सगाई करो। सच्चाई से शादी करो। अहं से तलाक लो। फिर वो एक अच्छी जिंदगी है! "
"जब तक आप बोलते नहीं हैं, शब्द आपके काबू में रह्ते हैं; लेकिन बोलने के बाद आप उनके काबू में रहते हैं।"
"हवाएं और लहरें हमेशा सबसे योग्य नाविक के पक्ष में रहती हैं."
"मंज़िल तक पहुँचने का रास्ता कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है, हर मोड़ से सामना करना सीखो, फिर तुम्हे हर परिणाम में कुछ न कुछ मूल्यवान मिलेगा."
"कामयाब लोग अपने आप को प्रदर्शित नहीं करते हैं, उनकी उपलब्धियाँ ही उनकी प्रदर्शनी है।"
"जीवन के इस सफ़र में, जब भगवान आपके रास्ते में सुइ और पिन डाल दे, तो उनसे बच कर न निकलें। उन्हें इकट्ठा करें। उनका उद्धेश्य आपको मजबूत बनाना था। "
"यदि सारी दुनिया आप के खिलाफ हैं, आप के पीछे हैं, और आप अकेले हैं, तो आप क्या करोगे? बस पलट जाइए, और अब सारी दुनिया आपके नेतृत्व में होगी। "
"कभी भी, अपना चरित्र एक बगीचे की तरह मत बनाओ, जहाँ कोई भी चल फिर सकें। एक आकाश की तरह बनाओ जहाँ तक पहुँचने के लिए लोगो को उठना पड़े। ऊँचा निशाना लगाओ। ऊँचा पहुँचो।"
"आप कम देते हैं, जब आप अपनी संपत्ति देते हैं। आप सचमुच तब देते हैं जब आप अपने आप को समर्पित कर देते हैं।"
"कभी भी गुस्से में आलोचना न करे बल्कि आलोचना ऐसी करे जिससे कि सुधार हो सके"

ये उक्तियाँ मुझे मोबाईल पर मिली और मुझे लगा कि मैं इन्हें अपने विस्तृत परिवार के साथ बांटू। मेरा मोबाईल बहुत सी अलग चीजे आकर्षित करता है, न कि सिर्फ सुंदर फोटो।

लेकिन एक परेशान करने वाली खबर भी मेरे मोबाइल पर आई - मौत की धमकी। लिखा था:

Mhanayk. Mare jaoge.only 3. de jinda.rhane ki kimt abhitabh.ji.25.cro.’

महानायक मारे जाओगे। सिर्फ़ 3 दिन ज़िंदा रहने की कीमत अमिताभ जी 25 करोड़।

इसे पढ़ता अनुवादित - महानायक, वो शब्द जो कि एक महान अभिनेता के वर्णन करने के लिए प्रयोग किया जाता है, आप को मार डाला जाएगा. 3 दिन ज़िंदा रहने की कीमत 25 करोड़ रुपए।

जब मैं लंदन में था तब ये धमकी मिली थी। लेकिन चूंकि मैं उसी दिन यात्रा कर रहा था, मैंने अपने ऑफ़िस से कहा कि वे पुलिस को सूचित कर दे।


जांच तत्काल शुरू हुई और उस व्यक्ति को खोज लिया गया और पुलिस की जानकारी के मुताबिक कार्यवाही शुरू हो गई है। इस मामले के प्रभारी पुलिस अधिकारी ने मुझसे कहा कि वह व्यक्ति राजस्थान के एक शहर से है। उसका दावा है कि वो अभिषेक का हमशकल है। राजस्थान में 'द्रोण' की शूटिंग के दौरान वो सेट के आसपास आता था। उसका दावा है कि 'द्रोण' फ़िल्म में उसने एक छोटी भूमिका निभाई है। मैंने पता लगाया तो ये बात झूठ निकली। न तो अभिषेक और न ही गोल्डी (फ़िल्म निर्देशक) उससे मिले हैं या उसके साथ कभी किसी का तरह का संपर्क किया है। और वह यह भी कहता है कि उसका हमारे परिवार के साथ सम्पर्क है। यह कथन पूरी तरह से गलत है। हम उसे कभी नहीं मिले हैं। उसका दावा है कि जब उसने मुझे जन्मदिन की शुभकामना भेजी थी तब उसे मेरा जवाब मिला था। मैं कोशिश करता हूँ कि प्रशंसको की शुभकामनाओं की चिट्ठीयों का जवाब दूँ। पुलिस ने बताया कि वो मुंबई आया था अभिषेक और ऐश्वर्य की शादी के वक़्त और यह कि एक नामी-गिरामी अखबार ने कथित तौर पर उसे पैसा दे कर उससे कहा कि वो अभिषेक का ढोंग कर के ऐश्वर्य के निवास के प्रवेश द्वार का पता लगाए, शादी से ठीक पहले। वह घर के परिसर के अंदर तक पहुँचने में सफल हो गया और उसके फ्लैट तक भी चला गया, लेकिन उसका दुर्भाग्य और ऐश्वर्य का सौभाग्य कि वो गलत फ़्लैट था। और वो पकड़ा गया। इस पूरी घटना को उस नामी अखबार ने और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने रिपोर्ट किया था।

मुझे इस के बारे में आगे कोई और जानकारी नहीं है।

मैं महाराष्ट्र पुलिस की सराहना करता हूँ कि इतनी तेजी से वे इस समस्या की तह तक पहुँचे और उपयुक्त कार्रवाई की।

ऐसी जिंदगी है।

हमेशा की तरह सबको मेरा प्यार --

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/30/day-165/

Tuesday, September 30, 2008

164 वां दिन

फिल्म सिटी, मुंबई सितम्बर 29, 2008 6:30 pm

इस महानगर पर सूरज डूब रहा है। मैंने अपने छोटे से नोकिया मोबाइल से एक और तस्वीर लेली।

मैं लक्सर/पार्कर पेन की शूटिंग के लिए फिल्म सिटी में हूँ। और अब मुझे पता चल गया कि कल रात मुझे क्या परेशानी थी।
मुझे काम पर जाने की आवश्यकता थी. स्टूडियो, कैमरा, बत्तियाँ और वातावरण ने मुझे जीवंत, मजबूत और खुशहाल बना दिया है.

मैंने सोचा कि मैं जल्दी से बता दूँ आपको ये बात, अगले शाट लेने से पहले।
लेकिन मैं बाद में और अधिक विस्तार से बात करेंगे।

दुर्भाग्य से, कुछ और बुरी खबर भी है। और जो लोग भारत में हैं वे इसके बारे में कल अखबारों में पढ़ेंगे। मैं इस पर अभी कई विभिन्न कारणों की वजह से कुछ कह नहीं सकता। जब मेरे पास ज्यादा जानकारी होगी, मैं आपको ज़रूर बताऊंगा।

इसके अलावा मैं आज 'द्रोण' का ट्रायल देखने जा रहा हूँ। आप को उसकी भी खबर दूँगा। बच्चों ने 2 अक्टूबर के लिए यह बहुत बड़ा प्रयास किया है। इन बच्चों द्वारा बनाई गई फ़िल्म के लिए आपकी प्रार्थना और शुभकामनाओं की जरूरत है।

सब को प्यार,
अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/29/mobile-pix/#more-458

163 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई सितम्बर 28/29, 2008 12:03am


हार की भावना और अवसाद मन में है। सब निरर्थक लग रहा है।

जो भी कार्य हो रहा है सब व्यर्थ लगता है। इन परिस्थितियों में और काम के बीच सब व्यर्थ नज़र आ रहा है। अस्तित्व ही व्यर्थ है।

हम एक विशेष दिशा में खींचे जा रहे हैं बिना किसी कारण के। एक ऐसी दिशा जिसका न कोई निश्चित पथ है न दिशा।

ऐसा क्यों है?

क्या यह अवसरों की कमी की वजह से है? या कि जीवन की और उदासीनता है? क्या है? हर बात अब अनिश्चित सी लगती है। यह ठीक नहीं है। मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से या सृजनात्मक तरीके से। मुझे जल्दी ही व्यस्त हो जाना चाहिए। आलस्य दिमाग और सोच को कुंद कर देता है।

यह हमें निंदक बना देता है। हम हर वक़्त मुद्दों की चीरफ़ाड़ करते रहते हैं, जिनसे हमारी ज़िंदगी का या किसी ओर की ज़िंदगी का कोई सम्बंध नहीं है। कितनी उर्जा और कितना समय बर्बाद होता है।

यह एक और दिन आराम का गुज़रा .. हा, हा .. अब मुझे इस तरह के दिनों की आदत हो गई है।

तो मैंने वो किया जो पिछले तीन महीनों में कभी नहीं किया। धूप में बैठकर विटामिन डी का रसपान किया। आधी रात को अचानक ठंड लगी और मैं काँप गया। बहुत जोर की ठंड लग गई। मैंने कुछ उपाय किए। ए-सी बंद किया, नाक में वैपोरब लगाया, कुछ और गरम कपड़े पहने, और बैठ कर टी-वी देखने लगा। आधे घंटे मे सब सही हो गया। ठंड और कंपकंपी की तीव्रता से गायब हो गई। लेकिन नींद उड़ चुकी थी और टी-वी का चस्का लग चुका था। काफ़ी देर तक सोचता रहा ....

जीवन और मृत्यु के विषय पर। विश्वास और प्रतिबद्धता के विषय पर। दुर्बुद्धि और प्रचार के विषय पर। प्रोफ़ाइल और जोखिम के विषय पर। और कुछ ठोस विचार उभरे। वे मेरे थे और कठोर थे और समाज में खुले आम सभ्य बहस के लायक नहीं। इसलिए मैं उन्हें बताना नहीं चाहता।

लेकिन मैं .. ज़रूर बताऊँगा … किसी दिन .. यह ब्लॉग मेरा है और मुझे किसी का भय नहीं है कि मैं यहाँ क्या लिखूँ क्या क्या न लिखूँ।

आप सब को मेरा प्यार,

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/29/day-163/#more-457

162 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई सितम्बर 27/28, 2008 12:57am

आज का पूरा दिन 'जुनून', NDTV ईमेजिन के संगीत शो, में बीता, जहाँ अभिषेक और मुझे 'अनफ़ारगेटेबल कांसर्ट' के प्रचार के लिए जाना पड़ा और हाँ फाइनल के लिए पुरस्कार भी तो देने थे।

नितिन देसाई एक सक्षम और उद्यमी सेट डिजाइनर हैं। उन्होंने करजात में एक स्टूडियो का निर्माण किया है। एकड़ों खुली जमीन और आँखों के लिए तो बस एक लुभावनी दावत, खासकर मानसून के तुरंत बाद तो क्या कहने।

हमें वहाँ तक जाते-जाते 3 घंटे लगे - ट्रेफ़िक की वजह से। पर वहाँ पहुंचने पर बहुत अच्छा लगा कि हम दोनों भी इस उत्तम श्रेणी के कार्यक्रम का एक हिस्सा है। देखिए ना, कितनी तेजी से भारत में मनोरंजन की दुनिया बदल गई है। विश्वास ही नहीं होता है। लाखों लोग मशगूल है पूरी संजीदगी से एक ध्येय की ओर। कितना कुछ खप जाता है एक शो को तैयार करने में! मैं चकित हूँ! मगर खुशी है कि प्रतिभाओं को उभरने में अब आसानी होगी और उन्हें ज्यादा अवसर मिलेंगे अपनी प्रतिभा दिखाने के लिए। एन डी स्टूडियो, अपने आप में एक शहर की तरह है। शूटिंग के लिए विशाल फर्श, सितारों और स्टाफ के लिए कमरें, आउटडोर शूटिंग के लिए वास्तविक अनुपात में बने बनाए सेट, कार्यालयों और प्रबंधन के लिए अलग क्षेत्र, जो चाहिए वो सब कुछ।

इन दिनों अपने प्रचार के लिए एक लोकप्रिय टीवी प्रोग्राम का उपयोग करना एक आम बात हो गई है। आज हम आमंत्रित मेहमान हैं। हमें शो में आदर सम्मान दिया जाता है। हमें सुसज्जित कुर्सियों पर बिठाया गया। हम प्रतियोगियों का कार्य देखते हैं और विजेताओं को इनाम देते हैं। बीच बीच में हमारी फिल्म या हमारे शो के बारे में बहुत सी बातें की जाती है। 'द्रोण' और 'अनफ़ारगेटेबल कांसर्ट' के बारे में बातें होती हैं, कैसा अनुभव रहा, कैसे उनके प्रोमोज़ थे, आदि आदि।

वे हमारा फ़ायदा करते हैं हम उनका। सब व्यापार है।

लेकिन ...

इस छोटी सी लेन देन के बीच में भी जीवन मौजूद है। एक अनजान, अनसुनी प्रतिभा का जीवन जो हम सब को आश्चर्यचकित कर देता है।

क्या लय है क्या ताल है। क्या गीत है क्या संगीत है। उनके दृष्टिकोण में कितना आत्म-विश्वास है और अनुग्रह। जैसे रचनात्मकता का एक विशाल भंडार हो। मेरा दिल उनके लिए दुआ मांगता है।

वे देश के कोने कोने से आए थे। सिर्फ़ महानगरों से नहीं। वास्तव में ज्यादातर प्रतियोगी छोटे शहरों से आए थे। कुछ आसपास के देशों से भी आए थे। और वे इतनी आशा और विश्वास के साथ आए थे।

वे सच्चे कलाकार हैं। जीतने के लिए जी जान लगाते हैं। पुरस्कार में एक कार, कुछ पैसे, और एक आकर्षक अनुबंध। वाहवाही और प्रशंसा भी साथ में। वे विनम्र हैं और समर्पित। सरल और अछूते। वे महान चरित्र हैं। और वे एक आवाज़ है। एक असाधारण आवाज़।

बहुत लोग भाग लेते हैं। बहुत से लोगों को बाहर कर दिया जाता है। कुछ लोग ही अंत तक पहुँचते हैं। लेकिन सब में प्रतिभा है किसी भी स्पर्धा को जीतने की।

चयन की प्रक्रिया लोकतांत्रिक होने की वजह से उन्हें निकाल दिया जाता है। वरना सभी जीतने के हक़दार हैं। हालांकि उनमें से एक ही जीत पाएगा, पर मेरे लिए सभी विजेता हैं।

मैं निर्णायक बन कर नहीं बैठता हूँ। मैं बन ही नहीं सकता। एक बार दक्षिण अफ्रीका में मिस वर्ल्ड के लिए जज बना था और वह मेरे जीवन का सबसे पशोपेश वाला क्षण था। तुम कैसे एक इंसान को दूसरे इंसान से कम नम्बर दे सकते हो। मनुष्य सब एक जैसे हैं। सभी बुद्धिमान और सुंदर और इनाम के योग्य। कैसे एक व्यक्ति दूसरे की तुलना में बेहतर हो सकता है। ऐसा नहीं होना चाहिए, और मैं इसके पक्ष में नहीं हूँ।

एक माँ के लिए एक बच्चा दूसरे बच्चे से कम कैसे हो सकता है?

इसलिए मैं स्पर्धाओं से दूर रहता हूँ। उनसे मुझे दु:ख पहुँचता है। अंत में जब तीन प्रतिद्वंदी रह जाते हैं तो उन में से दो को कोई कैसे कहे कि विजेता तीसरा है? कितना मुश्किल है और कठिन है! इसलिए हमारा परिवार ऐसे पैनलों पर बैठने से कतराता है। हमारा इस शो में उपस्थित होना अनिवार्य है, इसलिए हम यहाँ आए हैं, लेकिन हम निर्णायक नहीं बनेगे, जीत-हार का फ़ैसला नहीं करेंगे। मुझे जा कर विजेता पुरस्कृत करने हैं। बस इतना ही। और कुछ नहीं। और मैं बस यहीं करता हूँ।

वापस आते वक़्त, नितिन ने मुझे बुलाया उस धारावाहिक के सेट पर जिसे वे प्रोड्यूस कर रहे हैं, जिसमें महान मराठा, छत्रपति शिवाजी महाराज की जीवन गाथा है। युवा अभिनेता जो शिवाजी की भूमिका अदा कर रहा है, वो इस महान योद्धा की जीती जागती तस्वीर है। एक टीवी सीरियल पर इतना खर्च और इतनी विस्तृत जानकारी देख कर मैं चकित हूँ। मैंने कुछ प्रोमोज में कुछ अंश देखे। देखने में ऐसी कि जैसे एक बड़े बजट की फिल्म। नितिन चाहते हैं कि शिवाजी के दरबार में राज्याभिषेक के दृश्य में मैं भी रहूँ। मैं भरसक कोशिस कर रहा हूँ कि इसके लिए समय निकाल पाऊँ।

नितिन ने मेरी कई फिल्मों के लिए काम किया है। उनमें से सबसे महत्वपूर्ण कार्य था 'कौन बनेगा करोड़पति' और जोधा अकबर के सेट का निर्माण। सृजनशील हैं, बेहद प्रतिभाशाली हैं, और बहुत ही साधारण परिवेश से है, और आज अत्यंत सफल। लेकिन आज भी वैसे ही विनम्र हैं जैसे पहले थे। मैंने हमेशा इस तरह के पुरुषों की प्रशंसा की है।

वे एबी कॉर्प की एक और महत्वाकांक्षी परियोजना पर जल्दी ही काम करने वाले हैं, जहाँ उनकी क्षमता की जमकर परीक्षा ली जाएगी। लेकिन मैं जानता हूँ कि वे उसे बखूबी निभा लेंगे।

वापसी पर ट्रेफ़िक के डर की वजह से, और इस वजह से भी कि अभिषेक को जल्दी शाम को एक शूटिंग पर पहुँचना है, उन्होनें हमारे लिए एक हेलिकॉप्टर की व्यवस्था की। हमें सिर्फ़ 15 मिनट लगे वापस आने में। ठीक घर के दहलीज पर उतारा। कितना सुविधाजनक और समय की बचत भी।

जया और मैं रात का खाना खाने बैठें और हम देख रहे थे वही प्रोग्राम जिसमें हम अभी उपस्थित थे। अच्छा लगा। अनफ़ारगेटेबल टूर का प्रचार अच्छा लगा। और द्रोण का प्रचार भी। लेकिन जिन प्रतिभाओं को आज पुरुस्कार नहीं मिला, उनके चेहरें अभी भी मेरी नज़रों में घूम रहे हैं। मुझे व्याकुल कर रहे हैं। मुझे बहुत बुरा लग रहा है।

और हम देख ही रहे थे कि ...

दिल्ली में एक और बम ... और अभिषेक को कल वहाँ द्रोण से सम्बंधित वस्तुओं को बेचने के लिए जाना है। मैं उसे रोकता हूँ। सुरक्षा की वजह से नहीं, बल्कि संवेदनशीलता की वजह से। जब दिल्ली में ऐसी स्थिति हो तो क्या सामान बेचने की बात करना उचित होगा?

मैं उस सब से स्तब्ध हूँ जो हमारे आसपास आए दिन होता है। स्तब्ध और क्रोधित और कुंठित।

हमें शक्ति चाहिए और मनोबल चाहिए इससे लड़ने के लिए। और ज़रुरी नहीं कि हिंसा के माध्यम से। हमें जनता को शिक्षित करना चाहिए ताकि वे ऐसी वारदातों को समझ सके बुद्धिमानि से। हमें उन्हें भी शिक्षित करना होगा जो बहक गए है ताकि वे समझ सके कि इस तरह के कारनामें व्यर्थ हैं। हमें उन्हें समझने की जरूरत है और उन्हें हमें। दया और बल का मिश्रण। प्यार और पक्के मन का।

कोई तो करे ये हमारे लिए! कोई तो हो!!


http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/28/day-162/#more-456

Saturday, September 27, 2008

161 वां दिन

ग्रांड ओपेरा थियेटर, तेजस्वी और भव्य और अलंकृत और ऐश्वर्य से भरपूर। क्या महिमा है और यह एक उच्च कोटि की रचना है, इसका निर्माण प्रशंसनीय है।

जया और मैं ऑर्केस्ट्रा ज़ोन में बैठे थे इस आधुनिक आधुनिक बैले को देखने के लिए - राबिन्स (पश्चिम और अमरीका के ऐतिहासिक नृत्य-नाटक के प्रख्यात नृत्य-निर्देशक) की याद में और उन्हीं की पद्धति में नृत्य-नाटक, - एक अलग, कलात्मक, विनोदी और काव्यात्मक अभिव्यक्ति था - सब एक में लपेटा हुआ। लेकिन इस स्थान की खूबसूरती बस भी आधुनिक बैले के लिए कुछ भारी पड़ रही थी। पारम्परिक नृत्य-नाटिका के लिए यह स्थान ठीक रहेगा।

आप में से कई लोगों ने हम दोनों के साथ मिलकर के फ़ोटो खींचने की कामना की थी। लीजिए, हम आ गए, थिएटर से बाहर निकल कर, ठंडी रात में। किसी तरह से कुछ बातूनी महिलाओं से बचकर, जो कि हमसे तीन कतार पीछे बैठी थी। गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर, मेरी तरफ़ इशारा कर के, बार बार कह रही थी - 'वह बहुत बड़ा अभिनेता है, बहुत बड़ा।' एक सुखद सम्मानजनक मुस्कान के साथ। मैं थोड़ा शर्माया। इसलिए जल्दी से पर्शिंग से सलाद लेने के लिए गायब हो गया। पर्शिंगं रेस्टोरेंट का नाम एक प्रसिद्ध अमेरिकी जनरल के नाम पर रखा गया है। जिन्होंने पेरिस को हिटलर से बचाया था।

थोड़ा चिंताग्रस्त लग रहा हूँ. लेकिन इसकी सजावट और संगीत में बहुत अपनापन था।

मेरा प्यार ही प्यार, पहले की तरह। . और मैं वापस प्रतीक्षा में, मुंबई सितम्बर 27, 2008, 2:53am पर

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/27/paris-pix-4/#more-453

Friday, September 26, 2008

160 वां दिन

सितम्बर 26, 2008

इस समय मेरी घड़ी में बजे है 2.30pm और कम्प्यूटर के हिसाब से मुम्बई में 6.30pm

लंदन से मुंबई की यात्रा कुछ इस तरह होगी - JET 9W 0119 पर d0930A, a1100P

अभी हमने तुर्की और इराक पार किया है।

मैं यादों में खो रहा हूँ और प्लेन बादलों पर धक्के खा रहा है।

तीन महीने गुज़र गए हैं जब से मैंने स्टूडियो में कैमरे का सामना नहीं किया है। और मैं सोचता हूँ कि क्या ये मैंने सही किया।

काम से मुझे ताकत मिलती है। इसने मेरा दिमाग और शरीर जीवित रखा है। इसकी वजह से मैं अगले दिन का इंतज़ार करता हूँ। इसने मेरी परीक्षा ली है, मुझे कगार पर खड़ा किया है, मुझमें इच्छा जगाई है ध्यान केंद्रित करने की, कुछ सोचने की, कुछ पाने की, कुछ देने की।
नए विचार और प्रतिभा की संगत दी। कुछ करने की, कुछ जानने की, कुछ समझने की। मेरे अंतर को व्यक्त करने की, उसे घोषित करने की।

ज़िंदगी कितनी अजीब है। जब आप बाहर हैं तो अंदर आना चाहते हैं, जब आप अंदर हैं तो बाहर जाना चाहते हैं।

हम बार बार इससे जुझते हैं। हम जानते हैं कि अंततः हम सब बाहर हो जाएगे। लेकिन क्या हम सचमुच ऐसा अंत चाहते हैं? हम में से ज्यादातर नहीं। हम इसे टालते रहते हैं, आगे बढ़ाते रहते हैं और चलते जाते हैं।

लेकिन समय सब कुछ बदल देता है। हमें समय का आदर करना चाहिए।

यही चिंता मुझे लगातार खाए जाती है। समय को कैसे सहेजूँ। कैसे न सिर्फ समय की पाबंदी रखूँ, बल्कि हर पल का आदर कर सकूँ। क्योंकि ... "अनवरत समय की चक्की चलती जाती है, मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं, कल इस जगह फिर आना मुझको मुश्किल है"

कल मैं पेरिस में था, आज मुंबई में हूँ। अभी उतरा। कल मैं करजात जाऊँगा।

समय का वृत्त चलता रहता है।

ओह! जैसे जैसे समय बीत रहा है, वैसे वैसे मैं बहुत दार्शनिक होता जा रहा हूँ। अरे भई बच्चन जी, थोड़ा आराम करिए। दर्शन पर सोचने के लिए अभी बहुत समय है। लेकिन, क्या सचमुच?

हम घर आ गए हैं! यह वरसैलिस या प्लेस डि ला कान्कार्ड या ट्रोकाडेरो या ओपेरा का ग्रांड पेलेस नहीं है, लेकिन घर है। मेरा घर है। आत्मीय और व्यक्तिगत। मेरा घर!!

2:28am पर आप के लिए मेरा प्यार, मुंबई का स्थानीय समय 27 सितम्बर 2008 के दिन


अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/27/day-160/#more-455

159 वां दिन

पूरा दिन बस यूँ ही बीता, पुराने छोटे-मोटे कामों को सम्हालने में ... इसलिए कुछ नया लिख नहीं पाया… पर दिन का एक बड़ा हिस्सा गुज़ार दिया टिप्पणियों का जवाब देने में … जितनों का दे सकता था दे दिया … 157 वें दिन के बाद से। और एक टिप्पणी में दिए गए सुझाव के मुताबिक अब हर टिप्पणी के जवाब में उस व्यक्ति का नाम शामिल किया जाएगा और साथ ही दिन का उल्लेख भी - ताकि आप सबको अपनी अपनी टिप्पणी पर मेरा जवाब ढूंढने में आसानी हो।

उदाहरण के लिए, विभा day157 या d157 और फिर प्रतिक्रिया ..

अब मैं हवाई अड्डे के लिए निकल रहा हूँ, मुंबई की यात्रा के लिए। बाद में और लिखूँगा। हो सकता है प्लेन से ही लिख दूँ और कुछ ताजा फ़ोटो भी भेज दूँ।

.. तब तक के लिए

प्यार और प्यार ..

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/26/day-159/#more-454

Thursday, September 25, 2008

158 वां दिन

158 वां दिन
पेरिस,
24/25 सितम्बर 2008
रात के 12:15

यह काम कर रहा है! यह काम करता है! यह काम कर रहा है!

यह ब्लॉग अब बहुत बढ़िया काम कर रहा है! क्या बात है! आनंद ही आनंद!

मैं कई लोगों की टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर चुका हूँ, लेकिन बाकी के लिए समय नहीं मिला। मैं फिर से प्रयास करूँगा। अभी बहुत देर हो चुकी है। सुबह जल्दी उठना है, घर की फ़्लाईट पकड़ने के लिए। सुबह कोशिश करूँगा।

कल का दिन, अन्य दिनों के मुकाबले में, बड़ा अलसाया सा गुज़रा। सुनील, मेरे ब्रांड मैनेजर, का जन्मदिन था। पेरिस की अन्ना से शादी करने के बाद, वह भी अब थोड़ा बहुत फ़्रेंच ही है, लेकिन उसकी फ्रेंच अभी भी कमज़ोर है। अभी तो गुजरात का ही प्रभाव है।

शाम शांति से गुज़री कमरे में। कुछ अन्ना के स्थानीय मित्र आए थे। सुनील को मैंने उपहार दिया - 'देसी' भारतीय शाकाहारी भोजन - जब से यहाँ आया है, सलाद और एस्परागस से ही काम चला रहा था।

एक उसका दोस्त है - सर्गे - जो कि पेशेवर फ़िल्म संरक्षक है। उसने कई सारी दिलचस्प कहानियाँ सुनाई कि कैसे उसने पुरानी और खोई हुई फ़िल्मों को ढूंढा और उन्हें बचाया।

संरक्षण एक ऐसी कला है जो कि किसी भी देश के इतिहास और जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। भारत में अभी तक इस विषय पर ज्यादा सोचा नहीं गया है। हाँ, कुछ संस्थान है जो इस प्रक्रिया में शामिल हैं, लेकिन उस हद तक नहीं जितना कि उन्हें होना चाहिए। जया भरसक कोशिश कर रही है कि मेरी सारी फ़िल्मों की प्रतियां या नेगेटिव्स मिल जाए, लेकिन घोर असफ़लता ही हाथ आ रही है। लेबोरेटरीज़ (प्रयोगशालाओं) और आफ़िसेस (कार्यालयों) के पास उनका कोई रिकॉर्ड ही नहीं है। कितनी दयनीय स्थिति है।

आज की शाम बहुत शानदार रही।

पलाईस गारनियर, एक भव्य ओपेरा थियेटर है, और इतने सुंदर ढंग से अलंकृत। बैले नृत्य दिलचस्प था। आधुनिक और विनोदमय, पर बहुत ही अच्छा। थियेटर के कोने कोने से ऐश्वर्य टपक रहा था।

हाँ मोबाइल द्वारा फोटों खींचे हैं। मैं उन्हें ब्लाग पर दिखाने का प्रयास कर रहा हूँ। इस बार मेरा एक फोटो जया के साथ भी है और एक मेरा अकेले का भी है।

पेरिस शहर हमारे लिए बहुत दयालु और उदार रहा। यहाँ से जाने के बाद यहाँ की याद आएगी। लेकिन उम्मीद है कि यहाँ वापस आने के और भी अवसर आएंगे। ये सोचकर दु:ख हो रहा है कि जिस दिन हम यहाँ से जा रहे हैं उसी दिन ऐश्वर्य यहाँ आ रही है ब्राज़िल से लोरिएल की शूटिंग के लिए। लेकिन मुझे जाना ही होगा क्योंकि मुझे मुंबई में एक टीवी शो में शामिल होना है - जो कि पूर्व-अनुबंधन है और परिवर्तन से परे ...

मेरे मोबाइल आज, पर एक दुखद लेकिन उचित एसएमएस प्राप्त हुआ, जिसने मुझे सोचने पर मज़बूर कर दिया। आप भी पढ़ें --

"एक ऐस शूटर स्वर्ण पदक जीतता है और सरकार उसे 1 करोड़ रुपए देती है।
एक और ऐस शूटर आतंकवादियों से लड़ कर मर जाता है और सरकार उसे 5 लाख का भुगतान करती है।

असली विजेता कौन?"

मानव बनने के लिए, मानवीय बनें।।

मेरा प्यार सब के लिए

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/25/day-158/