Tuesday, September 30, 2008

163 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई सितम्बर 28/29, 2008 12:03am


हार की भावना और अवसाद मन में है। सब निरर्थक लग रहा है।

जो भी कार्य हो रहा है सब व्यर्थ लगता है। इन परिस्थितियों में और काम के बीच सब व्यर्थ नज़र आ रहा है। अस्तित्व ही व्यर्थ है।

हम एक विशेष दिशा में खींचे जा रहे हैं बिना किसी कारण के। एक ऐसी दिशा जिसका न कोई निश्चित पथ है न दिशा।

ऐसा क्यों है?

क्या यह अवसरों की कमी की वजह से है? या कि जीवन की और उदासीनता है? क्या है? हर बात अब अनिश्चित सी लगती है। यह ठीक नहीं है। मानसिक रूप से, शारीरिक रूप से या सृजनात्मक तरीके से। मुझे जल्दी ही व्यस्त हो जाना चाहिए। आलस्य दिमाग और सोच को कुंद कर देता है।

यह हमें निंदक बना देता है। हम हर वक़्त मुद्दों की चीरफ़ाड़ करते रहते हैं, जिनसे हमारी ज़िंदगी का या किसी ओर की ज़िंदगी का कोई सम्बंध नहीं है। कितनी उर्जा और कितना समय बर्बाद होता है।

यह एक और दिन आराम का गुज़रा .. हा, हा .. अब मुझे इस तरह के दिनों की आदत हो गई है।

तो मैंने वो किया जो पिछले तीन महीनों में कभी नहीं किया। धूप में बैठकर विटामिन डी का रसपान किया। आधी रात को अचानक ठंड लगी और मैं काँप गया। बहुत जोर की ठंड लग गई। मैंने कुछ उपाय किए। ए-सी बंद किया, नाक में वैपोरब लगाया, कुछ और गरम कपड़े पहने, और बैठ कर टी-वी देखने लगा। आधे घंटे मे सब सही हो गया। ठंड और कंपकंपी की तीव्रता से गायब हो गई। लेकिन नींद उड़ चुकी थी और टी-वी का चस्का लग चुका था। काफ़ी देर तक सोचता रहा ....

जीवन और मृत्यु के विषय पर। विश्वास और प्रतिबद्धता के विषय पर। दुर्बुद्धि और प्रचार के विषय पर। प्रोफ़ाइल और जोखिम के विषय पर। और कुछ ठोस विचार उभरे। वे मेरे थे और कठोर थे और समाज में खुले आम सभ्य बहस के लायक नहीं। इसलिए मैं उन्हें बताना नहीं चाहता।

लेकिन मैं .. ज़रूर बताऊँगा … किसी दिन .. यह ब्लॉग मेरा है और मुझे किसी का भय नहीं है कि मैं यहाँ क्या लिखूँ क्या क्या न लिखूँ।

आप सब को मेरा प्यार,

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/09/29/day-163/#more-457

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