सोपान, नई दिल्ली अक्टूबर 3/4, 2008 2:00 am
मैं नई दिल्ली में हूँ। सोपान में। सीढ़ियाँ। घर के बीच में एक सीढ़ी है जो ऊपरी मंजिल तक जाती है, उसी को देख कर मेरे पिता ने इस घर का नाम रखा था, सोपान । सोपान, उनकी एक पुस्तक का शीर्षक भी था।
गुल मोहर पार्क। '60 के दशक के शुरु में ये एक जंगल था। लंबी जंगली घास उगती थी यहाँ। न सड़क, न बिजली। एक ऐसा क्षेत्र जिसे सरकार ने लेखकों और पत्रकारों को आवंटित कर दिया था। मुझे याद है जब मैं यहाँ मेरे पिता को मिले प्लॉट को देखने आया था। रात का समय था, और कार की रोशनी ही एक रोशनी थी जिसके सहारे हम प्लॉट और प्लॉट के आसपास की जगह का अंदाजा लगा सके। भयग्रस्त चुप्पी में भेड़ीयों की चीख। ये जगह केवल कुछ सौ गज आगे थी, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) से - जो कि एक प्रशंसित चिकित्सा संस्थान है।
आज सोपान, गुल मोहर पार्क, दिल्ली का एक तरह से केंद्र ही है। घर, अस्पताल, स्कूल, प्रसिद्ध सिरि फोर्ट सभागार और कालोनियाँ ही कालोनियाँ, हाईवे, फ़्लाई-ओवर, बाज़ार।
इस खुले विस्तार पर, मैंने ये घर बनवाया था अपने माता पिता के लिए, कुछ सफलताओं के हाथ आ जाने के कुछ वर्षों बाद। मेरे पिता का संसद में राज्य सभा का कार्यकाल समाप्त हो गया था और अब उन्हें रहने के लिए एक जगह की जरूरत थी। मैं उन्हें मुंबई मेरे साथ रहने के लिए ले आया था; जो कि एक आम भारतीय परंपरा है। वे आए, और हमारे साथ रहे, लेकिन कहीं मुझे लगा कि उन्हें एक ऐसे घर की ज़रुरत है जो उन्हें अपना लगे। एक तरह का स्थायित्व, जिसे वे अपना कह सके।
एक औरत और एक पत्नी कभी आराम से नहीं रह सकती जब तक कि वो अपना एक छोटा सा घर न बना ले। यह उसकी सबसे बड़ी पूंजी होती है, जब पिता का घर छोड़ने के बाद वो शादी करती है एक नया जीवन शुरू करने के लिए। ये मेरी नज़र में, एक औरत के जीवन का सर्वोच्च बलिदान है। अपनी जिंदगी के शुरु के 20-25 साल जिस घर में बीते, उसे छोड़ देना और दूसरे घर में जा कर फिर से बसना। अपने नए परिवेश को अब अपना घर कहना। फिर से ज़िंदगी शुरू करना। बहुत कठिन है। इसलिए मेरी नज़रों में नारी हमेशा प्रशंसा की पात्र रही हैं। इसलिए मुझे तलाक और अलगाव की बातें सुनकर बहुत दु:ख होता है। टूटे हुए घर और बिखरे हुए परिवार। बहुत दु:ख होता है।
पत्नी, चाहे जैसे हो, या चाहे जैसी परिस्थिति हो, हमेशा अपने घर की रक्षा करती है, पोषण करती है, जैसे वो कर सकती है। वो इसे सजाएगी, संवारेगी और चलाएगी, जैसा कि कोई और नहीं कर सकता। और न ही किसी और व्यक्ति को इसे चलाने की अनुमति दी जाएगी। चाहे उनकी बहुत ज्यादा उम्र हो जाए, बूढ़ी हो जाए, असहाय हो जाए, लेकिन घर को चलाने के विषय में उनका ही निर्णय अंतिम रहेगा। आप की मजाल नहीं कि आप कोई सवाल करे, सुझाव दे या अपना मंतव्य जाहिर करे। पति महोदय! आपको चेतावनी दे दी गई है। इन झमेलों से दूर रहें अगर आप चाहते हैं कि घर में शांति बनी रहे … और खाना भी!!
सोपान।
मेरे पिता को अपने लेखन के लिए एक छोटा कोना मिल गया। उन्होंने अपनी आत्मकथा का अंतिम भाग यहाँ पूरा किया। उनकी किताबें और उनकी मेज अभी भी वैसे ही रखी है जैसे वे उन्हें छोड़ गए थे। सब कुछ - उनकी निजी वस्तुएँ, कागज और लेखन सामग्री, सब अचल और स्थिर। मैं अब वहाँ सोता हूँ जहाँ वे सोते थे और जहाँ वे बीमार पड़ गए थे, आत्मकथा के अंतिम अध्याय को लिखने के बाद, जिसकी उन्हें आशंका थी और इसकी घोषणा उन्होने तभी कर दी थी जब आत्मकथा का चौथा खंड शुरू ही किया था। जया अब इस घर की संरक्षक हैं, और वे अधिकतम समय यहीं बिताती है, संसद की गतिविधियों के कारण। उन्होंने कुछ कोने सही किये हैं और कुछ सजावटी परिवर्तन। ऐसे परिवर्तन जो कि स्वागत योग्य है, आत्मीय है और सुरुचिपूर्ण। आजकल वे व्यस्त हैं परिवार के पुराने कागज़ातों को इकट्ठा करने में। पुराने पत्र, इलाहाबाद और दिल्ली और नैनीताल और कोलकाता के हिस्से। पांडुलिपियाँ और स्केचेस और चित्र जो कि अनदेखे से पड़े थे, अपनी बहाली की भीख माँगते हुए। सब धीरे धीरे दीवारों और कमरों में पहुँच रहे हैं, कुछ यहाँ तो कुछ मुंबई में। कुछ को डिस्क में ढाल दिया गया है। कुछ को कम्प्यूटर में उतार दिया गया है। एक बहुत ही मूल्यवान और श्रमसाध्य कार्य। सब भावी पीढ़ी के लिए।
सोपान।
यह एकजुटता का एक डेरा है। दस-बारह प्राणियों का भरा-पूरा निकट परिवार, यहाँ साथ रहता है और हँसी-किलकारियों से भर देता हैं - जैसा कि एक संयुक्त परिवार में होता है। यहाँ जीवन के कुछ कठोर क्षण भी गुज़रे हैं। एक दीवाली पर मेरा हाथ यहीं जला था और वो दर्दनाक दृश्य जब मेरी माँ दौड़ी-दौड़ी सीढ़ियों से ऊपर हमारे बेडरुम में आई थी, सांस रोके - श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का समाचार ले कर। अभी भी वो अच्छी तरह से याद है। और एक नए वर्ष की पूर्व संध्या की सुखद घड़ी जब हमने श्वेता की निखिल के साथ सगाई की घोषणा की।
और आज मैं यहाँ देखूँगा अपने पोते-पोती नव्य-नवेली और अगस्त्य का एक संगीत कार्यक्रम जिसे उनकी माँ ने तैयार किया है, जिससे अर्जित आय उन बच्चों की देखभाल के लिए खर्च की जाएगी जिन्हें कैंसर हैं।
ऐश्वर्या मुंबई से सुबह कोलकाता गई थी एक समारोह के लिए और यहाँ देर से आई। अभिषेक सुबह आएगे। सोपान फिर से नए चेहरों से चमक उठेगा, वो घर जिसे मेरी माँ ने बनाया और सम्हाला।
मैं उस फोटो के सामने खड़ा हूँ जिसमे हम - माँ, पिताजी, मेरे भाई और मैं हूँ। ये फोटो तब लिया गया था जब ये घर बस बना ही था। जया ने बड़े ध्यान से एक दीवार सुसज्जित की है, बीते दिनों की याद ताज़ा करने के लिए। बीच बीच में परिवार के उन सदस्यों की भी तस्वीर है जो बाद में हमारे परिवार में शामिल हुए। निकि (निखिल) और नंदा परिवार, पोते-पोती और अब ऐश्वर्या। अभिषेक की दो साल की उम्र की फोटो। अभिषेक अब 6'3" के हैं। युवा अमिताभ अजीब तरह की हेयर-स्टाईल में। अमिताभ अमिताभ की हेयर-स्टाईल में। और अमिताभ - ठोड़ी पर सफेदी लिए हुए। जया एन सी सी की वर्दी में। जया अच्छी तरह से खड़े सांसदों की भीड़ में।
अंत में जीवन सिर्फ़ एक फोटो बन के रह जाता है दीवार पर।
आप को मेरा प्यार और प्यार --
अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/04/day-168/
Friday, October 3, 2008
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6 comments:
Great endeavour. keep it up Rahul ji . I keep myself restrained to blogvani only so it will be really convenient for me to visit Amitabh Bachchan's blog courtesy U. have u informed him about this?
बहुत अच्छी प्रस्तुति राहुल ,बधाई !
ये हुई न बात !
आप सचमुच बहुत अच्छा
अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं.
अमिताभ जी की बातों को
इस तरह हिन्दी में पढने का
सुंदर अवसर उपलब्ध कराने के लिए
आपका आभार
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
अच्छी प्रस्तुति। बधाई।
उस घाट पर दो सौ साठ। इस घाट पर कुल पौने चार टिप्पणियां। ऐसा क्यों। एक गैर अनूदित पोस्ट इस पर भी आनी चाहिए राहुल साब।
GR8 GR8 WORK...HOE DO U MANAGE IT...TRANSLATING EACH WORD OF MR.BACHCHAN.HATS OFF TO U.KEEP UP
आपकी मेहनत को सलाम है राहुल भाई ।
बस इसका प्रचार उतना ही होना चाहिए जितना अमिताभ के ब्लॉग का है ।
आपने कमाल की पहल की है ।
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