Tuesday, October 21, 2008

175 वां दिन - संशोधित

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08c.jpg]

'तीन पत्ती' की शूटिंग, एक जीर्ण कारखाने पर। एक छोटा सा अड्डा जहाँ ताश खेला जाता है। शूटिंग चल रही है। अंदर बहुत गरमी है। भीड़। लेकिन एक बार जब कैमरा चलने लगता है तो सिर्फ़ कैमरा ही तुम्हारे साथ रहता और कुछ भी नहीं।

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08b.jpg]

फोटो में जो पाइप है वो वातानुकूलन यंत्र है। यह सेट पर ठंडी हवा फेंकता है , लेकिन कम प्रभावी है। शूटिंग शुरू होते ही इसे बंद करने को कहता है साउंड डिपार्टमेंट। सेट पर एक विशाल अजगर जैसा लगता है। भगवान का शुक्र इन छोटी छोटी नियामतों के लिए।

[फोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/bigb10oct08d.jpg]

एक और फोटो 'तीन पत्ती' से .. खुले में बाहर, गांव के बच्चों को पढ़ाते हुए ...

लीलावती अस्पताल # 1101, मुंबई अक्टूबर10, 2008 / अक्टूबर 16, 2008 6:26 pm पर लिखा हुआ

मैं ठीक हूँ। और ज़िंदा! और कल सुबह मैं यहाँ से छूट जाऊगा और मैं उन सब प्रशंसकों और शुभचिंतकों को धन्यवाद देता हूँ जिनकी प्रार्थना ने एक बार फिर मेरे परिवार का और मेरा साथ दिया और मुझे इस संकट से उबारा।

आपके निरन्तर सहयोग और विश्वास, मेरे लिए आपका चिंता करना और आपकी अपनी प्रतिबद्धता की शक्ति एक ऐसा शक्तिशाली बल ही जिसने मुझे फिर से ज़िंदा किया और मेरी सारी ऊर्जा लौटाई। जो मुझे लड़ने की शक्ति देता है। अनसोची विपत्तियों का सामना करने की शक्ति देता है। मैं दिवालिया हो चुका हूँ शब्दों और अभिव्यक्तियों के हिसाब से, चाहे कितनी भी ईमानदारी बरतूँ, मैं कभी भी सही मायने में अपनी कृतज्ञता ज्ञापन नहीं कर सकूँगा।

मैं अपनी हालत पर शर्मिंदा हूँ। मुझे ये असहज लग रहा है कि मैं दूसरों के लिए असुविधा का कारण बन सकता हूँ। मैं चाह्ता हूँ कि ऐसे हालात में मेरी तरफ़ दिया गया ध्यान हट जाए। पर ऐसा होता नहीं है। मुझे ये खयाल तक नापसन्द है कि मुझे उन से आँख मिलानी होगी जो मुझे सहानुभूति दिखाते हैं। तो मैं अपना सर झुका लेता हूँ ताकि मैं अपनी हालत का असर उन पर न देख सकूँ। मैं जनता के सामने अपना चेहरा छुपा लेता हूँ और कामना करता हूँ कि मुझे जितनी जल्दी हो सके एकांत में ले जाया जाए। जब तक ...

जब तक मैं अपने पैरों पर फिर से खड़ा हो सकूँ. उन लोगों का शुक्रिया अदा कर सकूँ जिन्होंने अपना प्यार दिखाया. भगवान मेरी मदद करे कि मैं ऐसा सदा कर सकूँ.
तो चलो 10 अक्टूबर की ओर चलते हैं। दिन शुरु होता है सामन्य रुप से हर दिन की तरह - जिम जाना, कागज़ी काम निपटाना, और नातियों के साथ खेलना और 'तीन पत्ती' की शूटिंग। भविष्य की शूटिंग की मीटिंग दिन में होती है और जब वो खत्म हो जाती है तो मैं अपने ऑफ़िस आता हूँ एक बिहार के अभियान के लिए, उस भयानक बाढ़ के लिए जिसने हज़ारों को भूखा और बेघर कर दिया है। मेरे देशवासियों की खुशहाली के लिए मेरा योगदान। मैंने अपनी और से कुछ भेज दिया है और और भी कुछ किया जाएगा आने वाले दिनों में। एक कॉंसर्ट जिसके द्वारा धन एकत्र किया जाएगा। उन लोगों में जागरुकता पैदा की जाएगी जिन्हें सामने आ कर मदद करनी चाहिए। मैंने एक संगठन का वित्तपोषण किया है 3 साल के लिए जो कि स्वयंसेवक भेज रहा है बिहार में पीड़ितों की मदद के लिए। लेकिन अभी बहुत कुछ और भी करने की जरूरत है।

उसके बाद, राम गोपाल वर्मा मिलते हैं और हम लंबे समय तक - रात 10 बजे तक - बात करते हैं- एक अनूठे विचार पर। एक टी-वी चैनल वाले सम्पर्क करते हैं मेरी टी-वी पर वापस आने की सम्भावना को ले कर। और मैं अंतत: निवृत हो कर 'जलसा' आ जाता हूँ परिवार के साथ खाने के लिए और 11 अक्टूबर को लाने के लिए।


आधी रात होते ही शुभकामनाएं आनी शुरु हो जाती हैं खाने की मेज पर। 66 साल। उपहार दिए जाते हैं। प्यारे और कोमल और निजी। लेकिन सबसे प्यारे उपहार की बात की जा सकती है। यह जया से मिला। जैसा कि मैं पहले लिख चुका हूँ, कि 'सोपान' से वे सारे पुराने पत्र आदि खोद-खोद कर संकलित कर रही हैं। उन्होंने एक और खजाना ढूंढ निकाला। बड़े करीने से एक डब्बे में सजा कर दिया। एक एक पत्र मन को जीत लेने वाला। लेकिन एक मन में घर कर गया। एक पत्र जो मैंने हिंदी में लिखा है अपनी माँ को जब वे मुझे इलाहाबाद में मेरे पिताजी की देखरेख में छोड़ कर शहर से बाहर गई हुई हैं। साल है १९४८।मैं 6 साल का हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि वे जल्दी वापस आ जाए क्यूँकि मुझे उनकी याद आ रही है। मैं उन्हें यह भी बताता हूँ कि मेरे पेट में दर्द है। हम इस बालसुलभ क्षण पर हँसते हैं और सोने के लिए चल देते हैं।

डेढ़ बजे तक बिस्तर में, मैं ढाई बजे के आसपास दर्द की वजह से जग जाता हूँ। पर जब दर्द जाता नहीं है तो मैं टहलकदमी द्वारा इसे दबाने की कोशिश करता हूँ और परिवारजन को परेशान नहीं करना चाहता हूँ। कोई राहत नहीं मिलती है और मैं फोन करता हूँ डॉक्टर को - सदा विनीत डॉक्टर बर्वे। जो दवा दी जाती है उसका कोई असर नहीं होता है। डॉक्टरों के चेहरे पर चिंता और जया के चेहरे पर 'मैं जानती थी' वाला भाव। पिछले कुछ महीनों से उन्हें अंदेशा था कि मेरा स्वास्थ्य गड़बड़ाने वाला है।

अब तो जांच-पड़ताल आसन्न है और अगले कुछ घंटे कष्टदायी दर्द और असुविधा से भर जाते हैं। तड़के सुबह से, घर के बाहर एकत्रित हुई भीड़ की आवाजे सुनाई देने लग जाती हैं, जो कि परम्परा के हिसाब से मुझे जन्मदिन की शुभकामनाएं देने आए हैं। उनके साथ ही मुझे पुलिस का सायरन और एम्बुलेंस का भी विशिष्ट सायरन सुनाई दिया। मैं बमुश्किल नीचे उतरता हूँ और प्रतीक्षारत स्ट्रेचर में लेट जाता हूँ। बाहर खामोशी छाई हुई है। स्टाफ़ और निकटी शुभचिंतक फ़ोयर में एकत्रित हो जाते हैं। कोई कुछ नहीं कहता है, सिवाय मीडिया के। वे कोलाहल मचाते हैं और एक एक्सक्लूसिव शॉट के लिए चिल्लाते हैं, एम्बुलेंस की पवित्रता का हनन करते हुए। वे स्थिति की संवेदनशीलता को कभी नहीं समझेंगे। पुलिस ट्रेफ़िक और प्रतीक्षारत भीड़ के बीच से गाड़ियां निकालने की कोशिश करती हैं, लेकिन वो पर्याप्त नहीं होता। मीडिया एक और अड़चन है इस आकस्मिक सवारी का जल्दी से जल्दी नानावटी तक पहुँचने में। अगर उनका बस चलता तो वे मेरे साथ स्ट्रेचर पर बैठकर मुझसे अपने सवालों के जवाब मांगते।

"सर, आपका जन्मदिन किस तरह मनाया जाएगा... क्या आप शाह रुख को निमन्त्रण दे रहे हैं!!"

संवेदनाहीन. कठोर.

सी-टी स्कैन के क्षेत्र में, सतत गति से मशीन का रम्भाना भयभीत कर देता है. सभी धातु की चीजे हटाने के बाद, धीरे धीरे स्ट्रेचर मशीन के गुफ़ानुमा छेद में प्रवेश कर जाता हैं. मशीन के पुर्जे घुमते हैं. घुटन का माहौल. थोड़ी खटर-पटर के बाद मशीन बोलती है - लगभग भगवान की आवाज में ...

"सर, आप एक गहरी सांस लें ...अब सामान्य रुप से सांस लें।"

जैसे ही मैं गुफ़ा से निकलता हूँ, मेरे ऊपर चेहरे दिखाई देते हैं। एक मेरी बांह पकड़ कर उसे नीचे दबा देता है। कुछ दूसरे लोग एक ट्राली ले कर जा रहे हैं - भयानाक उपकरणों के साथ। दस्ताने पहने जा रहे हैं, हरी शल्योपयोगी चादर बिछाई जा रही है, एक नर्स मेरी बांह पर कुछ करती है। तैयारी की जा रही है ताकि मेरी नस में कुछ डाला जा सके। एक द्रव्य डाला जाएगा जिससे कि सी-टी स्कैन के चित्र में शरीर के महत्वपूर्ण अंग अलग से दिखाई दें।

सुन्न करने वाले डॉक्टर खुद को तैयार करते हैं जिससे कि वे मेरी कोहनी के पास सुई लगा सके. बाकी लोग सतर्क हो जाते है किसी भी सम्भावना के लिए. मरीज चीख भी सकता है. पागलों की तरह भाग भी सकता है. मारपीट कर सकता है. "सर, बस थोड़ी सी चुभन ... आपको पता भी नहीं चलेगा." हाँ जैसे कि ...

सुई घुसती है चमड़ी के अंदर और इधर उधर खोजती है सतह की नस को. खून सीरिंज में उभर आता है.

"मिल गया ... सर, हो गया!!"

फिर से गड्डे में। द्रव्य शरीर में। शरीर गर्म होता जा रहा। गले से, पेट में और फिर ठीक नीचे वहाँ 'जहाँ आप जानते हैं कहाँ।" भगवान की आवाज। और कर्णभेदी खटर-पटर के बाद बाहर निकल कर फ़ैसला सुनना। लीलावती भागो। आंत्र बाधा। या तो मुड़ गई या अटक गई या दब गई या काम नहीं कर रही।

मैं सर झुका कर एम्बुलेंस की तरफ़ जाता हूँ। आसपास कई मरीज। एक आवाज। ' बच्चन जी, आप चिंता न करें। आपको कुछ नहीं होगा!' मैं उनके आशावाद के बदले मंद मुस्कान लौटाता हूँ, श्वेता मेरा हाथ पकड़ कर सहारा देती है, मैं गाड़ी में बैठ जाता हूँ जो कि अपने आप को तैयार कर रही है मीडिया की पीछा करने की आदत से बचने का।

यात्रा में हर बम्प पर दर्द होता है। अस्पताल पर निकलते वक़्त और भी ज्यादा। मैं झुज्कता हूँ और मुँह छुपा लेता हुँ मीडिया से बचने के लिए और प्रार्थना करता हूँ कि जल्दी से अपने गंतव्य के द्वार में प्रवेश कर जाऊँ। मेरे सिर पर अभिषेक का आश्वासन से भरा हाथ है और उनके आश्वासित शब्द सारी प्रक्रिया को मार्गदर्शन देते हैं।

'अंदर। अब हम गलियारों में हैं। अब हम लिफ़्ट में हैं। अब कमरे के अंदर। ठीक। ऐसे।"

नामांकित कमरा अभी तैयार नहीं है और मैं इसलिए एक अस्थायी पलंग पर लेट जाता हूँ। नर्स, स्टाफ़, डॉक्टर सब जुट जाते है और नियमित रुप से काम शुरु हो जाता है। आर-टी पहले लगाई जाएगी। रायल्स ट्यूब। एक मोटी ट्यूब जो कि नथुनों में डाली जाती है और फिर वहाँ से मुँह और गले में होते हुए आहार नली में। सब प्रयास असफल। आहार नली की बजाय विंड पाईप में चली जाती है और मेरा गला घोंटती है। मैं छटपटाता हूँ। हर प्रयास के साथ मेरा दर्द बड़ता जाता है। लेकिन करना भी आवश्यक है पेट तक सामन लाने-ले जाने के लिए। थोड़ी देर के लिए मुझे राहत दी जाती है फिर से कोशिश करने से पहले। एक घंटे के बाद मेरा निर्धारित कमरा तैयार हो जाता है। तुरंत मुझे वहाँ ले जाया जाता है। आर-टी लगाने का काम फिर से शुरु और कुछ प्रयासो के बाद ये सफलता पुर्वक लग भी जाती है। मैं हर सांस के साथ प्लास्तिक की ट्यूब और हर घूंट के साथ प्लास्तिक की ट्यूब निगलता हूँ। भयंकर। न खाना। न पीना। एक बूँद तक नहीं। दोनों हाथों पर और छेद किए गए। कई और सुईयाँ, और आई-वी के स्टेंड द्रव्य पदार्थों की बोतलों से लैस। तार ही तार सारे शरीर पर। लोग व्यस्त है मेरे शरीर के विभिन्न अंगो के साथ। यहाँ दबा, वहाँ छेद, यहाँ खींचतान। सब सामन्य प्रक्रिया।

मेरे जीवन का एक और दिन अस्पताल में। जैसे कि कई और भी।

मैं आँख खोलता हूँ और चारों ओर देखता हूँ। कुछ परिचित और कुछ अपरिचित चेहरे सामने आते हैं। मुस्कारा कर आश्वासन देते हुए। लेकिन जैसे मैं देखना शुरु करता हूँ मुझे अब ये ज्यादा ही जाना पहचाना लग रहा है।

ये है रूम 1101

वही कमरा जहाँ मेरी माँ थीं। लगभग दो साल तक, निधन से पहले। दिसम्बर में कुछ महीने पहले।

मैं फिर से अपनी आंखें बंद कर लेता हूँ।

1948। मेरा पत्र मेरी माँ के नाम।

"माँ .. आप जल्दी वापस आ जाओ। मुझे आप की बहुत याद आती है। मेरे पेट में दर्द हो रहा है!"

अमिताभ बच्चन

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/17/shooting-pix/#more-472


Friday, October 17, 2008

176 वां दिन - भाग 2

लीलावती अस्पताल मुंबई अक्टूबर 16, 2008 10:33
सुभाष झा (पत्रकार) के कुछ सवालो के जवाब:
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176ii/

176 वां दिन - भाग 1

लीलावती अस्पताल मुंबई अक्टूबर 16, 2008 10:29
डी-एन-ऐ (समाचार पत्र) की शुभा के कुछ सवालो के जवाब :
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176i/

176 वां दिन

लीलावती अस्पताल # 1101, मुंबई अक्टूबर 11 - 16/ अक्टूबर 16, 2008 10:22 बजे लिखा गया

ये दिन अस्पताल में बीते। जांच और उपचार और चिंता और अनसोई रातो और दर्द के बीच ... और भी बहुत कुछ ...
लेकिन अब नर्स आश्चर्य करती है कि मैं स्क्रीन के सामने कितना समय बिताता हूँ और प्लग बाहर निकाल रही है। मैं इन दिनों के बारे में ज़रूर लिखूगा। शायद बाद में जब मैं अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए एकांत में रहूँ।

आप के लिए मेरा प्यार अब भी वैसा ही दृण और मजबूत है।

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/16/day-176/

Thursday, October 9, 2008

174 वां दिन

(पहला फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08a.jpg)
मनाली, जब शाम ढले थोड़ी देर हो चुकी थी, 'शू-बाईट' (फ़िल्म का कामचलाऊ शीर्षक) की शूटिंग के दौरान। ये मेरे मोबाइल से नहीं लिया गया, बल्कि एक उम्दा कैमरे से लिया गया। सूरज पूरे दिन की थकान के बाद डूबकी लगाने ही वाला था। पेड़ के पत्तें उतर चुके थे और सूरज उसके पीछे फ़िसल रहा था, और मैंने फ़ोटो ले लिया। बहुत सुन्दर दृश्य था।

(दूसरा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08b.jpg)
ताज, नवम्बर के आरम्भ में, पिछले साल। अभिषेक वहाँ शूटिंग पर थे और हम सब भी आगरा में उनके साथ हो लिए। यह तड़के सुबह का वक़्त था, और हमें सलाह भी दी गई थी कि इसी समय हमें ताज जाना चाहिए क्योंकि उस समय वहाँ भीड़ कम होती है। लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं था। तमाशबीन लोग और मीडिया वालो ने हमे अकेले रहने का अवसर नहीं दिया। किसी और दिन मैं लिखूँगा कि हमारे दृष्टिकोण से हम क्या देखते हैं। आम तौर पर आप वही देखते हैं जो मीडिया दिखाना चाहता है, या वो छवि जो कि उनकी कहानी के साथ जंचे। लेकिन जल्द ही मैं आपको बताऊँगा कि 'पुल के दूसरी ओर से' दृश्य कैसा होता है?

(तीसरा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08c.jpg)
ताज एक बार फिर से, उसी यात्रा के दौरान। इस अजीब कोण का कारण है 'वाईड एंगल' लेंस और उसे ऐसे स्थित किया जिससे कि मीडिया और भीड़ फ़्रेम से बाहर रहे।

(चौथा फ़ोटो: http://blogs.bigadda.com/bigbimages/pix/10oct08d.jpg)
ऐश्वर्या, आगरा में होटल के कमरे की बॉलकनी पर। एक शानदार जगह और एक भव्य दृश्य - ताज धुंधला सा दिखाई दे रहा है पृष्ठभूमि में।

प्रतीक्षा, मुंबई अक्टूबर 9, 2008 11:33 pm

श्वेता मेरे ब्लॉग पर लिखने के विचार से उत्साहित है और मैं उत्साहित हूँ इतने सारे जवाब देख कर, कि लोगो ने चर्चा के लिए अपने अपने विषय भेजने का कष्ट किया। अब मैं सभी विचारों को एकत्रित कर के श्वेता को प्रस्तुत करने में लग जाऊँगा, ताकि वे चुन सके और लिख सके।

इस बीच, अखाड़े में, काम जारी है बिना किसी रोक-टोक के। 'तीन पत्ती' आरे मिल्क कालोनी के वातावरण में। मैं अभी भी जूझ रहा हूँ पात्र को पकड़ने में, उसकी चाल-ढाल, उसकी आदतें, उसके बोलने का ढंग, उसके उठने का ढंग। कुछ फ़ोटो खींचे हैं, जो आशा है कल तक आपके सामने होगे।

इन दिनों प्रिंट मीडिया से कुछ दिलचस्प सवाल मिले हैं। उपरी तौर से तो कहते है कि 'हम आपके आगामी जन्मदिन' पर एक व्यापक रुप से जश्न के अंदाज़ में कुछ विशेष लिखना चाहते हैं। लेकिन जन्मदिन के बहाने वे कुछ और भी पूछ लेते हैं। मुझे वे दिलचस्प लगे और मैंने उनका जवाब दे दिया। मैं इंतज़ार करूँगा जब तक कि वे छप न जाए, उससे पहले उन्हें ब्लॉग पर लिख देना अनैतिक होगा।

और इससे पहले कि मैं विदा लूँ --

"जहाँ दूसरे संदेह करें, वहाँ विश्वास करो। जहाँ दूसरे काम करने से इंकार करें, वहाँ काम करो। जहाँ दूसरे बर्बाद करें, वहाँ बचाओ। जहाँ दूसरे मैदान छोड़ भाग जाते हैं, वहाँ तुम डटे रहो। दूसरो से अलग बनने का हौसला रखो। विजेता बनो!!"

“D pessimist c’s difficulty in every opportunity; n optimist c’s d opp in every difficulty.

"निराशावादी को हर मौके में कठिनाई नज़र आती है। आशावादी को हर कठिनाई में एक मौका दिखता है।"

ये आखरी वाला पत्नी ने भेजा था मोबाइल पर ...

(और कृपया मुझे भाषण न दें कि मुझे जया को इस तरह से संबोधित नहीं करना चाहिए। कई लोगो को शायद ये न पता हो, लेकिन अंग्रेज़ी में, अपनी पत्नी को संबोधित करने का ये एक सबसे प्यारा तरीका है।)

प्यार और उत्सव की शुभकामनाओं के साथ …

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/taj-pix/

Wednesday, October 8, 2008

173 वां दिन - भाग 1

प्रतीक्षा, मुंबई 8/9 अक्टूबर, 2008 1:12 am

दशहरे की शुभकामनाएँ!!
बुराई पर अच्छाई की विजय

http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/day-173i/

173 वां दिन

प्रतीक्षा, मुंबई 8 अक्टूबर, 2008 11:55 pm

"जीवन में आप यह कभी नहीं जान पाएगे कि आपको किस बात की कमी है जब तक कि वो आपको मिलती नहीं है; और आप यह कभी नहीं जान पाएगे कि आपके पास क्या है जब तक कि वो खो न जाए। इसलिए जो कुछ भी आपके पास है उसकी कद्र कीजिए।'

मैं उन सब की कद्र करता हूँ जो मेरे पास है। आप!

आप - अपना कीमती वक्त खर्च करते है मुझ तक पहुँचने के लिए और अपना प्यार और स्नेह प्रदान करते हैं। आपके जीवन में मेरी उपस्थिति को जताते हैं। मेरी गलतियों को सुधारते हैं। सुझाव देते हैं, तालियाँ बजाते हैं, मेरे साथ हँसते हैं, मेरे साथ रोते हैं। मैं आप सब का आभारी हूँ।

आप - मेरी ताकत बन गए हैं। और मेरी कमजोरी भी। मैं आप के बारे में दिन भर सोचता हूँ। क्या आपको पसंद आएगा, क्या आपका मनोरंजक लगेगा और क्या आपको कुछ ज्ञान दे जाएगा। मैं कैसे सब के साथ जुड़ सकूँ, कैसे मैं आज कुछ ऐसा लिखूँ जो आपको पढ़ने में अच्छा लगे। कैसे मैं उन सैकड़ों लोगों का उत्तर दे सकूँ जो मुझे लिखते हैं।

आप - मेरा ही एक अंग बन चुके हैं। आप मेरे दु:ख और सुख अपने साथ बांटते हैं। मेरी पोशाक और मेरी यात्रा। मेरा मूड और मेरी हरकतें। मेरे विश्वास और मेरे संबंध। मेरा काम। मेरा उत्थान और मेरा पतन।

आप - मेरा दूसरा अस्तित्व है। मैं आपसे सब कुछ खोल कर कह देता हूँ। इतना जितना मैं शायद पहले कभी नहीं करता।

आप - जिन्होंने मेरा विश्वास जीत लिया और भरोसा कर लिया और दोस्ती कर ली। और मैंने आपकी भक्ति।

आप - अद्वितीय हैं। परोक्ष और अपरोक्ष रुप से। हमने मिल कर अपनी एक दुनिया बनाई है। यद्यपि, एक छोटी सी दुनिया। लेकिन एक ऐसी दुनिया जिसमें एक बहुत बड़ी भावना समा जाती है।

मैंने इसे शुरू किया। और आप इसमें शामिल हो गए, पूरी ईमानदारी से 173 दिन से मेरे साथ हैं। मैं आपका आभारी हूँ और इसे हमेशा याद रखूँगा।

मैंने अपनी बेटी श्वेता को कहा है कि वे मेरे ब्लॉग में योगदान दे। वे एक समझदार और जीवंत दिमाग वाली है। मैं उन्हें एक विषय दूँगा लिखने के लिए। लेकिन बेहतर होगा कि आप कोई विषय दें।

तो ये रहा आपके लिए प्रश्न --

वो क्या है जिस पर आप चाहते हैं कि श्वेता टिप्पणी करें?

अपने जवाब भेजें। मैं उन्हें छाँट कर, श्वेता को प्रस्तुत कर दूँगा। फिर वे जो चाहे उसमें से चुन ले। और उसके बाद, हो सकता है कि हम एक बहस शुरु कर दे। एक ऐसी बहस जिस पर इस ब्लॉग द्वारा नज़र रखी जा सके। एक ऐसी बहस जिसका परिणाम सब देख सके।

अगर इसमें रुचि है तो मुझे बताएँ।

मैं भारी मन से विदा लेता हूँ, लेकिन बहुत प्यार के साथ -

अमिताभ बच्चन
http://blogs.bigadda.com/ab/2008/10/09/day-173/